Rani Durgavati: अकबर के सामने 'झुकी नहीं' वीरांगना! ₹100 करोड़ के राज्य के लिए कटार घोंपकर किया आत्मबलिदान
महाराजा कीर्ति सिंह चंदेल की बेटी, वीरांगना दुर्गावती (जन्म 5 अक्टूबर, 1524) ने 25 वर्ष की उम्र में गढ़ा-कटंग (मंडला) राज्य की बागडोर संभाली। उन्होंने अकबर के प्रस्ताव को ठुकराया और आशफ खां को तीन बार हराया। 24 जून, 1564 को युद्ध में घायल होने के बाद मुगलों के सामने न झुकने के लिए खुद को कटार घोंपकर बलिदान दिया।
भारतीय इतिहास के पन्नों में वीरांगना रानी दुर्गावती का नाम शौर्य, पराक्रम और आत्म-बलिदान की एक अनुपम गाथा है। 5 अक्टूबर, 1524 को कालिंजर दुर्ग में जन्मी, यह वीरांगना न केवल भाला, तलवार और धनुष-बाण चलाने में प्रवीण थीं, बल्कि 25 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने गढ़ा-कटंग (मंडला) जैसे विशाल और समृद्ध राज्य की बागडोर संभाली। उनका शासनकाल सच्चे नेतृत्व और अद्वितीय बहादुरी का प्रतीक है, जिसने मुगल सम्राट अकबर को भी चुनौती दी थी।
रानी दुर्गावती ने साबित किया कि क्षमता उम्र और लिंग की मोहताज नहीं होती। 1548 में पति दलपत शाह की मृत्यु के बाद, उन्होंने अपने पांच वर्षीय पुत्र वीरनारायण की संरक्षिका के रूप में शासन किया। उनका राज्य इतना विशाल था कि अबुल फज़ल ने अकबरनामा में इसे 'विस्तृत पथ' और 'किले से भरा' बताया। गढ़ा राज्य में 70,000 बसे हुए गाँव थे और इसकी सम्पन्नता पर मुगलों की हमेशा कुदृष्टि रही।
घूँघट प्रथा का विरोध और 'नारी वाहिनी' का गठन
रानी दुर्गावती केवल युद्ध के मैदान में ही नहीं, बल्कि सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ भी खड़ी थीं। जब मुगलों से प्रभावित उनके देवर चन्द्र सिंह ने उनसे घूंघट रखने के लिए कहा, तो उन्होंने साफ मना करते हुए कहा, "गोंड कबसे पर्दा डालने लगे? यह प्रथा किसी के लिये ठीक नहीं है।" यह दिखाता है कि वह अपने जनजातीय मूल्यों और नारी स्वतंत्रता के प्रति कितनी सजग थीं।
अद्वितीय सैन्य शक्ति: रानी की सेना में 20,000 घुड़सवार, एक हजार हाथी दल और बड़ी संख्या में पैदल सेना थी।
महिला सैन्य दल: सबसे खास बात यह थी कि उन्होंने अपनी सहायिका रामचेरी के नेतृत्व में एक 'नारी वाहिनी' का गठन किया था, जिसमें युवतियां भी तैनात थीं। यह उस दौर में महिलाओं के सशक्तीकरण का एक जीता-जागता प्रमाण था।
बाजबहादुर को तीन बार हराया, अकबर का प्रस्ताव ठुकराया
रानी दुर्गावती का सैन्य कौशल इतना जबरदस्त था कि उन्होंने मालवा के मंडलिक राजा बाजबहादुर के आक्रमण का बहादुरी से सामना किया और उसे एक नहीं, बल्कि तीन बार निर्णायक रूप से पराजित किया।
जब सम्राट अकबर की कुदृष्टि उनके राज्य पर पड़ी, तो उसने पहले चालाकी से प्रस्ताव रखा: यदि वह युद्ध से बचना चाहती है तो अपना सफेद हाथी (सरमन) और विश्वासपात्र मंत्री आधार सिंह उसे सौंप दे।
रानी दुर्गावती ने निर्भीकतापूर्वक यह प्रस्ताव ठुकरा दिया। उन्होंने शरण लेने के बजाय युद्ध को चुना, यह जानते हुए भी कि उनकी सेना मुगलों के मुकाबले छोटी है।
आत्म-सम्मान में भोंक ली कटार
23 जून, 1564 को अकबर के सेनापति आशफ खां ने दोगुनी ताकत से रानी के राज्य पर पुनः आक्रमण किया। रानी दुर्गावती ने अभूतपूर्व वीरता का प्रदर्शन किया। वह दोनों हाथों से तलवार चलाना जानती थीं और जिधर जाती थीं, शत्रु की लाशें बिछा देती थीं।
युद्ध में चोटें: 24 जून को लड़ते समय एक तीर उनके हाथ में लगा, जिसे उन्होंने तुरंत निकाल फेंका। लेकिन संभलने से पहले ही दूसरा तीर उनकी आँख में लगा, जिसकी नोंक आँख में धंसी रह गई।
अंतिम आघात: उन्हें तीसरा तीर गर्दन में लगा, जिसके बाद उन्होंने महसूस किया कि अंत निकट है।
मुगलों की दासता स्वीकार करने के बजाय, रानी ने वज़ीर आधारसिंह से अपनी गर्दन काटने का आग्रह किया, पर जब वह तैयार नहीं हुए, तो वीरांगना ने अपनी कटार स्वयं ही अपने पेट में भोंककर आत्म बलिदान कर दिया।
40 वर्ष की आयु में 24 जून, 1564 को जबलपुर के पास बरेला नामक स्थान पर इस महान रानी ने अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए अमर इतिहास रच दिया। उनके पुत्र वीरनारायण ने भी मुगलों से लोहा लिया और सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया। आज भी बरेला में उनकी समाधि बनी है, जहां लाखों लोग श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
आपकी राय में, रानी दुर्गावती का घूंघट प्रथा का विरोध और नारी वाहिनी का गठन उस समय की सामाजिक सोच पर किस प्रकार का प्रभाव डालता होगा?
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