History Unfolds: वो डॉक्टर जो बन गई रानी झाँसी! कैप्टन लक्ष्मी सहगल का अमर बलिदान: 500 महिलाओं की सेना तैयार कर नेताजी के साथ अंग्रेजों को दी चुनौती!
कैप्टन लक्ष्मी सहगल (24 अक्तूबर 1914 – 23 जुलाई 2012) आज़ाद हिन्द फ़ौज की अधिकारी और रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट की संस्थापक थीं। पेशे से डॉक्टर लक्ष्मी ने सिंगापुर में नेताजी सुभाषचंद्र बोस से मिलकर स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया। वह आज़ाद हिन्द सरकार में पहली महिला कैबिनेट मंत्री बनीं। उन्हें 1998 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं, जो सिर्फ बलिदान की कहानी नहीं, बल्कि अदम्य साहस और नारी शक्ति के उदय का प्रतीक भी हैं। उन्हीं अमर वीरांगनाओं में से एक थीं आज़ाद हिन्द फ़ौज (INA) की अधिकारी कैप्टन लक्ष्मी सहगल। आज, 24 अक्तूबर को, उनका जन्मदिवस है – एक ऐसा दिन जब हम एक बार फिर से उस डॉक्टर के सफर को याद करते हैं, जो विदेश में अपनी आरामदेह जिंदगी छोड़कर क्रांति की रानी बन गई। लक्ष्मी सहगल सिर्फ एक सिपाही नहीं थीं; वह नेताजी सुभाषचंद्र बोस की विश्वासपात्र सहयोगी, महिलाओं की सेना की संस्थापक और एक मानवतावादी डॉक्टर थीं, जिन्होंने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक देश और गरीबों की सेवा की।
शाही पृष्ठभूमि से क्रांति के मैदान तक
लक्ष्मी स्वामीनाथन के रूप में 1914 में मद्रास (चेन्नई) में जन्मीं लक्ष्मी का पारिवारिक पृष्ठभूमि ही राष्ट्रवादी थी। उनके पिता एस. स्वामीनाथन मद्रास उच्च न्यायालय के जाने-माने वकील थे और मां एवी अम्मुकुट्टी ('अम्मू स्वामीनाथन') एक प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता थीं। कुलीन नायर परिवार से होने के बावजूद, लक्ष्मी बचपन से ही राष्ट्रीय आंदोलनों से जुड़ीं। वह गांधीजी के अहिंसा मार्ग और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार के आंदोलन से भी प्रभावित रहीं।
उन्होंने 1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री हासिल की और स्त्री रोग विशेषज्ञ बनीं। लेकिन व्यक्तिगत जीवन में असफलता के बाद, 1940 में वह सिंगापुर चली गईं। सिंगापुर में उनके डॉक्टर के रूप में किए गए कार्य ने उन्हें युद्धबंदियों और गरीबों के बीच एक नया सम्मान दिलाया।
नेताजी से एक घंटे का संवाद: जीवन का टर्निंग पॉइंट
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब जापानी सेना ने सिंगापुर पर कब्जा किया, तो डॉक्टर लक्ष्मी घायल युद्धबंदियों की सेवा में जुटी थीं। लेकिन उनके जीवन की दिशा 2 जुलाई, 1943 को तब बदल गई, जब क्रांति की मशाल लेकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस सिंगापुर पहुंचे।
नेताजी के साथ करीब 1 घंटे के संवाद ने डॉ. लक्ष्मी के भीतर आजादी के लिए समर्पण की भावना को चरम पर पहुंचा दिया। उनकी अति महत्वाकांक्षा और देशभक्ति के जज्बे को देखकर नेताजी ने एक ऐतिहासिक घोषणा की: महिलाओं की सेना – 'रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट' का गठन, जिसका नेतृत्व डॉ. लक्ष्मी करेंगी। यह विंग एशिया में अपनी तरह की पहली विंग थी। उन्होंने 500 महिलाओं की एक ऐसी फ़ौज तैयार की, जो बंदूक की गोलियों से अंग्रेजों को ललकार सकती थी।
कैप्टन लक्ष्मी से पद्म विभूषण तक का सफर
रानी झाँसी रेजिमेंट में सक्रियता के कारण उन्हें बाद में कर्नल का ओहदा भी मिला, जो एशिया में किसी महिला को मिलने वाला पहला ओहदा था। लेकिन वे हमेशा 'कैप्टन लक्ष्मी' के नाम से ही याद की जाती रहीं। स्वतंत्रता के बाद, उन्होंने कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह किया और कानपुर में बस गईं।
उन्होंने अपना शेष जीवन भी राष्ट्र और समाज सेवा में लगाया। वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से जुड़ीं और महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता के लिए लड़ीं। उनके असाधारण योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें वर्ष 1998 में देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान 'पद्म विभूषण' से अलंकृत किया। वर्ष 2002 में उन्होंने राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लड़ा।
23 जुलाई, 2012 को 98 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ। अपनी अंतिम इच्छा के अनुसार उन्होंने अपना शरीर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया। कैप्टन लक्ष्मी सहगल का यह सफर सिर्फ एक इतिहास नहीं है, बल्कि यह हर भारतीय को देशभक्ति, साहस और मानवता के लिए प्रेरित करता रहेगा।
कैप्टन लक्ष्मी सहगल का यह विचार आज भी प्रेरक है:
“औरतें केवल घर की नहीं, देश की रक्षा की भी जिम्मेदारी उठा सकती हैं।”
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