Jharkhand Judgment: आदिवासी पहचान पर 12 साल की लड़ाई, हाईकोर्ट ने तोड़ी साजिश की दीवार
झारखंड हाईकोर्ट ने तमारिया/तमड़िया जाति को लेकर कार्मिक विभाग की याचिका को खारिज कर दिया। यह फैसला आदिवासी समुदाय की वर्षों पुरानी जातीय मान्यता की जीत मानी जा रही है।

झारखंड की राजनीति और प्रशासन की एक और परत हाईकोर्ट के एक फैसले के बाद खुलकर सामने आई है।
12 वर्षों तक चली एक जातिगत मान्यता की लड़ाई, मानसिक प्रताड़ना और राजनीतिक साजिशों के जाल के बाद आखिरकार आदिवासी समुदाय को एक बड़ी राहत मिली है।
क्या है मामला?
तमड़िया/तमारिया जाति को लेकर झारखंड में एक लंबी कानूनी लड़ाई चली।
मुद्दा यह था कि क्या यह जाति मुंडा जनजाति की उप जाति है या नहीं?
2013 में पश्चिमी सिंहभूम जिले के चाईबासा के दोपाई निवासी लालजीराम तियू ने राज्य प्रशासनिक सेवा के एक अधिकारी कानूराम नाग पर आरोप लगाया कि वे जातीय प्रमाण पत्र में “मुंडा” लिखवा कर लाभ उठा रहे हैं, जबकि उनकी जाति तमड़िया/तमारिया है।
यह मामला झारखंड की राज्य जाति छानबीन समिति तक पहुंचा।
समिति में उस समय अध्यक्ष थे वरिष्ठ आईएएस अधिकारी राजीव अरुण एक्का।
उन्होंने विस्तृत जांच के बाद यह माना कि तमारिया/तमड़िया जाति, मुंडा जनजाति की ही उपजाति है, और इस आधार पर उनका प्रमाण पत्र वैध माना गया।
लेकिन यहीं से शुरू हुई असली लड़ाई
इस समिति की रिपोर्ट के बाद, कुछ गैर-आदिवासी अधिकारियों ने एक अलग मोर्चा खोल दिया।
उन्होंने इस फैसले के खिलाफ झारखंड हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर दी।
जाहिर है, यह मामला अब एक जातीय पहचान से ज्यादा राजनीतिक चालों का हिस्सा बन गया था।
12 साल की मानसिक प्रताड़ना और निलंबन
इस केस में मुख्य आरोपी के रूप में चिन्हित किए गए प्रखंड विकास पदाधिकारी कानूराम नाग को न केवल मानसिक रूप से परेशान किया गया, बल्कि उन्हें 12 वर्षों तक नौकरी से निलंबित रखा गया।
इस बीच, उनकी पहचान, करियर और सामाजिक छवि को जिस तरह से घसीटा गया, वह आदिवासी समाज की न्यायिक संरचना में भरोसे को गहरा झटका था।
हाईकोर्ट ने दिया ऐतिहासिक फैसला
19 अप्रैल 2025 को झारखंड हाईकोर्ट के न्यायाधीश गौतम कुमार चौधरी की अदालत ने इस पूरे प्रकरण पर बड़ा फैसला सुनाया।
उन्होंने राज्य सरकार के कार्मिक विभाग द्वारा दायर की गई याचिका को खारिज करते हुए स्पष्ट किया कि—
“तामड़िया/तमारिया जाति को मुंडा जनजाति की उपजाति मानने में समिति की रिपोर्ट वैध और तार्किक है।”
इस फैसले के साथ न केवल कानूराम नाग को न्याय मिला, बल्कि पूरे तमड़िया/तमारिया समाज को एक सम्मानजनक पहचान भी मिली।
झामुमो-कांग्रेस की आदिवासी हितैषी छवि पर सवाल
आदिवासी मुंडा समाज विकास समिति के जिला अध्यक्ष हरिचरण सांडिल ने इस फैसले के बाद प्रेस विज्ञप्ति जारी करते हुए कहा कि—
“यह फैसला झामुमो-कांग्रेस के इंडिया गठबंधन की कथित आदिवासी हितैषी राजनीति की पोल खोलने वाला है। जब आदिवासी को न्याय दिलाने की बारी आई, तब वही गठबंधन चुप्पी साधे रहा।”
इतिहास क्या कहता है?
अगर हम झारखंड के सामाजिक इतिहास को देखें, तो यह साफ दिखता है कि तमड़िया/तामड़िया जाति पारंपरिक रूप से मुंडा जनजाति की उपजाति रही है।
झारखंड के दक्षिणी इलाकों में इनकी सामाजिक भूमिका, परंपरा, भाषा और रीति-रिवाज, सभी कुछ मुंडा समुदाय से मेल खाते हैं।
यह पहली बार नहीं है जब किसी जाति की उपजातीय पहचान पर विवाद खड़ा किया गया हो।
2007 में भी इसी तरह का मामला कोरवा जनजाति को लेकर उठा था, लेकिन तब भी अदालत ने परंपरा और सामाजिक मान्यता को ही आधार बनाया था।
अब आगे क्या?
हरिचरण सांडिल ने कहा कि इस पूरे मामले में जिस तरह से कानूराम नाग को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया गया,
उसे लेकर अब मानहानि का केस झारखंड सरकार के विरुद्ध दर्ज कराने की तैयारी है।
इस संबंध में आदिवासी मुंडा समाज विकास समिति के केंद्रीय अध्यक्ष बुधराम लागुरी से बातचीत कर अगली रणनीति तैयार की जाएगी।
झारखंड हाईकोर्ट का यह फैसला केवल कानूनी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान की जीत है।
यह उस व्यवस्था के खिलाफ एक प्रतीकात्मक लड़ाई भी है, जहां राजनीतिक स्वार्थ के लिए आदिवासी समाज की अस्मिता को बार-बार चुनौती दी जाती है।
अब देखने वाली बात यह होगी कि क्या सरकार इस फैसले को सहजता से स्वीकार करती है या फिर कोई नया कानूनी मोर्चा खोला जाएगा।
पर एक बात तो तय है—सच अगर 12 साल भी देर से आए, तो भी वह पूरी ताकत से आता है।
What's Your Reaction?






