Bollywood Twist में फंसी 'जलियांवाला बाग' की सच्ची कहानी! अक्षय कुमार की फिल्म ने क्या गड़बड़ कर दी?
अक्षय कुमार की नई फिल्म ‘Kesari Chapter 2’ ने जलियांवाला बाग हत्याकांड की ऐतिहासिक घटना को बड़े पर्दे पर उतारने की कोशिश की है, लेकिन क्या यह फिल्म इतिहास के साथ इंसाफ करती है? पढ़िए पूरी समीक्षा।

‘Kesari Chapter 2: द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ जलियांवाला बाग’—नाम सुनते ही एक ऐतिहासिक फिल्म की उम्मीद जगती है, जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे भयावह अध्याय को उजागर करेगी। लेकिन यह फिल्म, जो इतिहास की गहराइयों को छूने का दावा करती है, वास्तव में बॉलीवुड की सतही चमक-दमक में उलझकर रह जाती है।
फिल्म की शुरुआत होती है 13 अप्रैल 1919 की उस काली दोपहर से, जब जनरल डायर के आदेश पर अमृतसर के जलियांवाला बाग में निहत्थे भारतीयों पर गोलियां बरसाई गईं। इस भीषण नरसंहार के बाद एक व्यक्ति खड़ा हुआ—सर चेट्टूर शंकरन नायर, एक मलयाली बैरिस्टर और तत्कालीन वायसराय की काउंसिल के सदस्य। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य पर मुकदमा ठोक दिया, इसे नरसंहार करार दिया और न्याय की लड़ाई लड़ी।
लेकिन क्या फिल्म इस महान व्यक्ति की गहराई को छू पाई?
अफसोस की बात यह है कि फिल्म की सबसे बड़ी कमजोरी खुद उसका हीरो है। अक्षय कुमार, जो नायर की भूमिका में हैं, न तो उनकी बोली पकड़ पाए, न ही उनकी सांस्कृतिक गहराई। फिल्म में बताया गया कि नायर कलरिपयट्टू और कथकली में पारंगत हैं, लेकिन न उनकी चाल-ढाल में यह दिखता है, न उनके अभिनय में।
फिल्म की पटकथा और निर्देशन में इतिहास की बारीकियों को दरकिनार कर दिया गया है। निर्देशक करण सिंह त्यागी और लेखक अमृतपाल सिंह बिंद्रा ने कोर्टरूम ड्रामा को तो स्टाइलिश तरीके से पेश किया है, लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, पंजाब के उस दौर की राजनीतिक हलचल और नायर के कांग्रेस कनेक्शन को लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया।
रजत पट पर फिल्म में एक दिलचस्प टकराव दिखाया गया है—नायर और ब्रिटिश वकील नेविल मैककिनली (आर. माधवन) के बीच। माधवन की एक्टिंग सराहनीय है, लेकिन स्क्रिप्ट उन्हें उभार नहीं पाती। वहीं, अनन्या पांडे एक युवा वकील दिलरीत गिल की भूमिका में ठीक-ठाक हैं, लेकिन उनका किरदार भी अधूरा लगता है।
फिल्म में कुछ झलकियाँ हैं जो आज के राजनीतिक माहौल से जुड़ती हैं—जैसे मीडिया की सेंसरशिप, सत्ता द्वारा नैरेटिव कंट्रोल और कानून का दुरुपयोग। लेकिन ये सब सतही और क्षणिक हैं, जो जल्दी ही ग़ायब हो जाते हैं।
एक अहम मोमेंट है जब फिल्म का हीरो, पहले ब्रिटिशों का हिमायती दिखाया जाता है, अचानक एक घटना से जागता है और क्रांतिकारी बन जाता है। यह ट्रांसफॉर्मेशन बेहद फिल्मी और कमज़ोर लगता है। असल इतिहास में नायर लंबे समय तक आज़ादी की लड़ाई का हिस्सा रहे थे—वे कांग्रेस के बड़े नेता थे, जिसे फिल्म में नजरअंदाज कर दिया गया।
फिल्म में सबसे ज़्यादा प्रभावित करने वाला किरदार है 13 वर्षीय परगट सिंह का, जो जलियांवाला बाग नरसंहार का एकमात्र जीवित गवाह है। उसकी मासूम मगर जिद्दी कोशिशें नायर को झकझोरती हैं। लेकिन अफसोस, ऐसे इमोशनल पलों की फिल्म में कमी है।
'Kesari Chapter 2' एक स्टार-ड्रिवन फिल्म है, जो इतिहास को मनोरंजन में बदलने की कोशिश करती है, लेकिन उस गहराई तक नहीं पहुँच पाती जहां दर्शक सचमुच झकझोर दिए जाएँ। अक्षय कुमार ने अपनी ओर से प्रयास किया, लेकिन किरदार की आत्मा को पकड़ नहीं सके। फिल्म में न तो अदालत की लड़ाई में वो तीखापन है, न ही इतिहास की सच्चाई में वो वजन।
अगर आप इतिहास के प्रेमी हैं, तो ये फिल्म आपको सतही लग सकती है। अगर आप सिर्फ कोर्टरूम ड्रामा और स्टार पावर देखना चाहते हैं, तो शायद पसंद आ जाए। लेकिन सवाल ये है—क्या इतनी बड़ी ऐतिहासिक घटना के साथ बॉलीवुड को इतना हल्का व्यवहार करना चाहिए था?
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