Jharkhand Loot: निजी अस्पताल बना ‘मुनाफे का अड्डा’, दवा के नाम पर लूटा देश का मरीज!
झारखंड के निजी अस्पताल मरीजों से दवाओं और सर्जिकल सामान के नाम पर 1800 फीसदी तक मुनाफा वसूल रहे हैं। औषधि निदेशालय की जांच में इस घोटाले का खुलासा हुआ है।

रांची – अगर आप सोचते हैं कि अस्पताल ‘सेवा’ का केंद्र होते हैं, तो सावधान हो जाइए!
झारखंड के निजी अस्पतालों ने इलाज को धंधा बना दिया है और मरीजों की जेब से लूटकर मोटी कमाई की जा रही है।
राज्य औषधि निदेशालय की हालिया जांच में खुलासा हुआ है कि अस्पताल मरीजों को दवाओं और सर्जिकल आइटम्स के नाम पर 1800% तक मुनाफा वसूल रहे हैं।
यानी जिसकी दवा की असली कीमत 10 रुपये है, वही दवा मरीज को 200 रुपये में बेची जा रही है।
कैसे होता है यह मुनाफे का खेल?
सारा खेल एमआरपी यानी मैक्सिमम रिटेल प्राइस के नाम पर होता है।
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दवा निर्माता कंपनियां अस्पताल के साथ मिलकर एमआरपी जानबूझकर ज़्यादा तय करती हैं।
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अस्पताल फिर मरीज को वही दवा या आइटम एमआरपी या थोड़ी छूट के साथ बेच देता है।
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मरीज को लगता है कि उसे सही कीमत पर इलाज मिला है, लेकिन असल में उसे कई गुना ज्यादा कीमत वसूल ली जाती है।
IV सेट का 1800% मुनाफा, इंजेक्शन में भी भारी घोटाला
राजधानी रांची के एक सुपरस्पेशलिटी हॉस्पिटल में IV सेट के लिए मरीज से 201 रुपये वसूले गए, जबकि अस्पताल ने उसे खरीदा सिर्फ 10.52 रुपये में।
इसी तरह, "टिकोसिन 400" नामक इंजेक्शन, जिसकी एमआरपी 2714 रुपये है, अस्पताल ने मरीज से पूरी कीमत वसूली, लेकिन उसने खुद इसे सिर्फ 490 रुपये में खरीदा था।
यानी 454% का सीधा मुनाफा!
तीन मरीज, एक इलाज, तीन रेट
सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि निजी अस्पताल एक ही इलाज के लिए तीन अलग-अलग रेट वसूलते हैं:
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आयुष्मान भारत योजना के मरीजों से एक रेट
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इंश्योरेंस कंपनी वाले मरीजों से दूसरा रेट
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और सामान्य (कैश पेमेंट करने वाले) मरीजों से तीसरा रेट
यानी एक ही दवा, एक ही इंजेक्शन, लेकिन अलग-अलग कीमतें — मरीज के स्टेटस के हिसाब से!
कानून की कमी, अस्पतालों को नहीं डर
सबसे बड़ा झोल ये है कि कोई स्पष्ट नियमावली नहीं है, जो निजी अस्पतालों पर लगाम लगा सके।
जब अस्पताल एमआरपी से ज्यादा नहीं वसूलते, तो कानूनी रूप से वे दोषी नहीं माने जाते।
यही वजह है कि ये अस्पताल आराम से दवा कंपनियों के साथ मिलकर MRP तय करते हैं और लूट का खेल बिना किसी डर के जारी रखते हैं।
इतिहास भी रहा है विवादित: पहले भी उठे हैं ऐसे मामले
झारखंड में यह पहली बार नहीं हो रहा।
2018 में भी रांची और जमशेदपुर के कुछ अस्पतालों पर दवाओं की ओवरप्राइसिंग का आरोप लगा था, लेकिन नतीजा? सिर्फ नोटिस और चेतावनी!
दवा कंपनियों और अस्पतालों का गठजोड़ इतना मजबूत है, कि किसी भी कार्रवाई का असर बहुत कम दिखता है।
तो अब सवाल उठता है…
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क्या मरीजों को अब दवा की बिलिंग की पारदर्शिता नहीं मिलनी चाहिए?
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क्या सरकार को हर दवा की असली खरीद कीमत और MRP के बीच का अंतर स्पष्ट नहीं करना चाहिए?
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क्या हर अस्पताल के फार्मेसी स्टोर पर ऑडिट अनिवार्य नहीं होना चाहिए?
क्या आप जानते हैं?
भारत में दवा की एमआरपी तय करने का कोई पारदर्शी केंद्रीय मैकेनिज्म नहीं है।
यही वजह है कि कंपनियां अपनी मनमानी कीमतें तय करती हैं — और निजी अस्पताल उनका सबसे बड़ा ग्राहक बन जाते हैं।
अब आपकी बारी!
क्या आपको भी कभी अस्पताल में दवा या सर्जिकल आइटम के नाम पर ज़्यादा पैसा देना पड़ा है?
क्या आपको लगता है कि ऐसे अस्पतालों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए?
नीचे कमेंट करें और अपनी राय साझा करें!
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