Chapter 3 - आइए "ना" हमरा बिहार में , Anand Mohan Gopalganj कृष्णैया कांड का अनसुलझा राज!
क्या 1994 का गोपालगंज नरसंहार और आनंद मोहन का लालू के साथ जटिल रिश्ता बिहार की राजनीति को फिर से झकझोर देगा? जानिए बिहार चुनाव 2025 की राजनीति की इनसाइड स्टोरी।

पटना, बिहार – 24 सितंबर, 2025 : बिहार की सियासत एक ऐसा रंगमंच है जहाँ अपराध, सत्ता, जातीयता और सामाजिक समीकरणों का खेल अक्सर आम आदमी की समझ से परे होता है। लेकिन जब बात गोपालगंज के 5 दिसंबर 1994 की काली शाम की हो, जहाँ एक IAS अधिकारी की बेरहमी से हत्या ने पूरे राज्य को हिला कर रख दिया, तो यह कहानी महज राजनीतिक ड्रामा नहीं, बल्कि बिहार के 'जंगल राज' की ग्राउंड रियलिटी बन गई।
1994 का गोपालगंज नरसंहार: कानून का खात्मा या सियासत की साज़िश?
‘जहाँ जो हाथ दिखाए वही बाज़ी मारता है’—यह मुहावरा उस दिन पूरी तरह सच्चा साबित हुआ। जिला अधिकारी जी. कृष्णैया, जो कानून का प्रतीक थे, उनकी हत्या न सिर्फ एक राजनैतिक कत्ल थी, बल्कि बिहार में गुंडागर्दी का संदेश भी थी। कृष्णैया अपनी सरकारी गाड़ी में मुजफ्फरपुर से लौट रहे थे, जब छोटन शुक्ला की अंतिम यात्रा में शामिल भीड़ ने उन्हें रोक लिया। भीड़ की हालत ऐसी थी मानो आग में घी डाल दिया गया हो। उन्हें सड़क पर बेरहमी से पीटा गया और अंत में गोली मार कर उनकी जान ले ली गई।
इस घटना के पीछे खड़े थे आनंद मोहन सिंह, जिनका नाम पुलिस एफआईआर में भी साफ था। बाहुबली सांसद के रूप में आनंद का बिहार में आतंक छाया हुआ था। 1994 की उस रात बिहार की राजनीति का सबसे काला अध्याय लिखा गया। लेकिन सवाल यह रहा कि क्या सिर्फ आनंद मोहन ही जिम्मेदार थे, या उनका राजनैतिक-सामाजिक गठजोड़ भी इस हत्या के लिए जिम्मेदार था?
आनंद मोहन और लालू प्रसाद यादव: मियां-बीवी के रिश्ते से दुश्मन तक?
आनंद और लालू का संबंध एक मुहावरे की तरह था—'पहले दोस्त फिर दुश्मन'। आरजेडी के दौर में आनंद मोहन राजनीतिक ताक़त के केंद्र में थे, लेकिन यह दोस्ती ज्यादा दिन नहीं टिकी। आनंद ने 1993 में खुद बीपीपी (बिहार पीपुल्स पार्टी) बनाकर लालू को चुनौती दी। उनकी राजनीतिक चतुराई ने पिछड़ों और राजपूतों के बीच जातीय तनाव पैदा किया।
‘जहाँ गुल खिलते हैं वहाँ कांटे भी होते हैं’—यह कहावत आनंद और लालू के रिश्ते के लिए बिल्कुल फिट बैठती है। 1994 के नरसंहार के बाद भी लालू ने आनंद को नजरअंदाज नहीं किया। उनकी पत्नी लवली आनंद को उपचुनावों में जिताया, जो सारे खेल को और पेचीदा बनाता है। लालू और आनंद का रिश्ता ना सिर्फ राजनीतिक गठबंधन था, बल्कि एक खतरनाक सियासी जाल भी था।
जेल की सलाखों के पीछे से सियासी गलियारों तक
2007 में आनंद मोहन को मौत की सजा सुनाई गई। फिर 2008 में यह सजा आजीवन कारावास में बदल गई। साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे बरकरार रखा। लेकिन जेल में रहते हुए भी आनंद की सियासत नहीं रुकी। “जेल की दीवारें भी पार्टी हॉल की तरह होती हैं," कहते हैं कुछ लोग। लालू के सत्ता काल में आनंद की पकड़ सार्वजनिक मंच से कम नहीं हुई।
2023 की रिहाई: न्याय या राजनीति का खेल?
नीतीश कुमार सरकार ने 2023 में जेल सुधार नियमावली में बदलाव किया, जिससे जीवन कारावास के बंदियों को रिहाई मिलने का रास्ता साफ हो गया। इसके जरिए आनंद मोहन भी बाहर आए। आईएएस एसोसिएशन ने इसका विरोध किया, और कृष्णैया की पत्नी उमा देवी ने सुप्रीम कोर्ट से न्याय की गुहार लगाई।
नीतीश ने इसे 'मानवीय आधार' बताया, लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह कदम लालू के लिए सीधे तौर पर चुनौती मानी गई। इसका मतलब क्या था? क्या आनंद का नीतीश के क़दमों पर आना पुरानी दुश्मनी का अंत है, या एक नया सियासी गठजोड़?
2025 के बिहार चुनाव में इसका असर
‘जहाँ दाल में कुछ काला होता है’—यह कहावत बिहार की वर्तमान सियासत पर पूरी तरह खरी उतरती है। 2025 के बिहार चुनावों में आनंद मोहन की रिहाई ने सियासी माहौल को तेज़ कर दिया है। न सिर्फ RJD, JD(U), BJP बल्कि बीपीपी जैसे पुराने और नए गठज़ोड़ों के लिए भी अनिश्चितता की स्थिति है।
किसका दांव कहां लगेगा, यह देखना बाकी है, लेकिन इतना तय है कि गोपालगंज नरसंहार की छाया और आनंद-मोहन और लालू का राजनीतिक इतिहास बिहार की जनता के लिए चुनावी तोहफे के साथ-साथ भारी सवाल भी लेकर आ रहा है।
क्या बिहार की राजनीति बदलेगी?
क्या बिहार की राजनीति कभी ‘जंगल राज’ से बाहर निकल पाएगी? क्या अपराधी और सियासी गठजोड़ का मेल खत्म होगा? या फिर हम ‘सांप भी मर जायेगा और लाठी भी नहीं टूटेगी’ जैसे हालात के गवाह बने रहेंगे? लालू, आनंद, और नीतीश के इस राजनीतिक त्रिकोण ने बिहार की राजनीति को एक रहस्यमय मोड़ पर खड़ा कर दिया है।
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