Chaibasa Surrender: कुख्यात नक्सलियों ने छोड़ा हथियार, पुलिस के सामने किया आत्मसमर्पण
पश्चिम सिंहभूम में बड़ी कामयाबी, 10 नक्सलियों ने हथियार डाल पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया। इनमें एक इनामी नक्सली भी शामिल, जिसे लंबे समय से खोज रही थी पुलिस।

झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले में बुधवार को नक्सल विरोधी अभियान के तहत पुलिस को जबरदस्त सफलता मिली। वर्षों से जंगलों में पुलिस को चुनौती देने वाले कुख्यात नक्सलियों ने आखिरकार हथियार डाल दिए। झारखंड पुलिस महानिदेशक अनुराग गुप्ता के समक्ष 10 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें 6 पुरुष और 4 महिलाएं शामिल हैं।
इस आत्मसमर्पण की खासियत यह रही कि इनमें से एक इनामी नक्सली भी था, जिसकी तलाश पुलिस लंबे समय से कर रही थी।
आत्मसमर्पण करने वाले बड़े नाम
पुलिस के अनुसार आत्मसमर्पण करने वालों में रांदो बोइपाई उर्फ काति बोइपाई और गार्दी कोड़ा जैसे नाम शामिल हैं। ये वही नक्सली हैं जिन पर हत्या, विस्फोटक अधिनियम और कई थानों में गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे। इनकी दहशत पश्चिम सिंहभूम के जंगलों से लेकर सरायकेला-खरसावां और खूंटी तक फैली हुई थी।
स्थानीय लोग इन नामों को सुनते ही दहशत में आ जाते थे। लेकिन अब वही चेहरे मुख्यधारा की ओर लौटने की बात कर रहे हैं।
आत्मसमर्पण समारोह में पुलिस की मौजूदगी
आत्मसमर्पण कार्यक्रम में झारखंड पुलिस और CRPF के कई वरिष्ठ अधिकारी मौजूद रहे। नक्सलियों ने हथियार और गोला-बारूद सौंपते हुए कहा कि वे अब हिंसा का रास्ता छोड़ना चाहते हैं।
झारखंड सरकार की आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति के तहत इन्हें आर्थिक सहायता, शिक्षा, रोजगार और पुनर्वास की सुविधाएं दी जाएंगी। यही नीति नक्सलियों को जंगल छोड़कर समाज में लौटने के लिए प्रेरित कर रही है।
डीजीपी का कड़ा संदेश
डीजीपी अनुराग गुप्ता ने इस मौके पर कहा:
“झारखंड की आत्मसमर्पण नीति देश की सर्वश्रेष्ठ नीतियों में से एक है। जो हथियार छोड़ेंगे, उन्हें नई जिंदगी और बेहतर अवसर मिलेंगे। लेकिन जो हिंसा का रास्ता नहीं छोड़ेंगे, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।”
उन्होंने यह भी बताया कि पुलिस के पास नक्सलियों की गतिविधियों का पूरा डेटा और खुफिया जानकारी है। यह संदेश स्पष्ट था — हथियार डालो तो सम्मान मिलेगा, वरना कार्रवाई तय है।
नक्सलवाद का इतिहास और झारखंड
झारखंड लंबे समय से नक्सल हिंसा की चपेट में रहा है। 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी आंदोलन से शुरू हुई यह लहर धीरे-धीरे झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़ और ओडिशा तक फैल गई।
पश्चिम सिंहभूम, सरायकेला, चतरा और गढ़वा जैसे जिले नक्सल प्रभावित इलाकों की सूची में हमेशा रहे। कभी लाल गलियारे (Red Corridor) के हिस्से रहे इन इलाकों में पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ आम बात थी।
2000 के दशक में झारखंड पुलिस और CRPF को कई बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। कई जवान शहीद हुए, वहीं आम लोग भी हिंसा की चपेट में आए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में लगातार अभियान और आत्मसमर्पण नीति ने नक्सल गतिविधियों को काफी हद तक कमजोर कर दिया है।
आत्मसमर्पण का असर
विशेषज्ञों का मानना है कि इस आत्मसमर्पण से जंगल में छिपे अन्य नक्सलियों पर भी असर पड़ेगा। जब बड़े नाम जैसे रांदो बोइपाई और गार्दी कोड़ा हथियार डाल सकते हैं, तो छोटे कैडर पर भी दबाव बढ़ेगा।
स्थानीय ग्रामीणों को भी राहत की सांस मिली है। उन्हें उम्मीद है कि अब उनके इलाकों में विकास की गति तेज होगी और जंगलों में शांति लौटेगी।
लोगों की उम्मीदें
पश्चिम सिंहभूम के ग्रामीणों का कहना है कि नक्सली हिंसा ने उनके बच्चों की पढ़ाई, रोजगार और सामान्य जीवन को प्रभावित किया था। अब अगर यह आत्मसमर्पण स्थायी शांति लाए, तो यह पूरे इलाके के लिए नई सुबह साबित होगा।
यह आत्मसमर्पण सिर्फ एक औपचारिकता नहीं, बल्कि झारखंड के नक्सल इतिहास में एक बड़ा मोड़ है। सवाल यह है कि क्या बाकी नक्सली भी हथियार छोड़कर समाज की मुख्यधारा में लौटेंगे?
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