1932 Khatiyan Jharkhand: कैसे एक पुरानी ज़मीन की किताब झारखंड की पहचान की जंग और चुनावी हंगामे को हवा दे रही है!

झारखंड राजनीति में 1932 खतियान की विस्फोटक भूमिका—एक सदी पुराना भूमि रिकॉर्ड जो मूल निवासी बहस, नौकरी कोटा और आदिवासी अधिकारों का हथियार बन गया। विधानसभा बिल से 2024 चुनाव तक, जानें क्यों यह "भूली हुई मांग" अभी भी विरोध और वादों को भड़का रही है।

Sep 23, 2025 - 01:40
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1932 Khatiyan Jharkhand: कैसे एक पुरानी ज़मीन की किताब झारखंड की पहचान की जंग और चुनावी हंगामे को हवा दे रही है!
1932 Khatiyan Jharkhand: कैसे एक पुरानी ज़मीन की किताब झारखंड की पहचान की जंग और चुनावी हंगामे को हवा दे रही है!

समाजसेवियों का तंज – “1932 की माँग अब सिर्फ़ छलावा बन चुकी है

समाजसेवी रामू सरदार, सनत सिंह सरदार और राजू मुखी ने तीखे शब्दों में कहा कि 1932 की मूलवासी-स्थानीयता की माँग अब सिर्फ़ छलावा बन गई है. यह मुद्दा नेताओं के लिए महज़ चुनावी भाषण और वोट बटोरने का हथियार रह गया है, जबकि असलियत में जनता को इसके नाम पर लगातार ठगा जा रहा है समाजसेवियों का कहना है कि न जनता को जागरूक करने की कोशिश हो रही है, न कोई ठोस रणनीति बन रही है. नेताओं की प्राथमिकता पूरी तरह बदल चुकी है और समाज भी अपने रोज़मर्रा की परेशानियों में उलझकर इस ऐतिहासिक माँग को भुला बैठा है. युवाओं में भी इसके प्रति कोई जागरूकता दिखाई नहीं देती

उन्होंने दो टूक कहा कि अब न रेल टेका होगा, न सड़क पर आंदोलन की गूँज सुनाई देगी. 1932 की माँग अब केवल अखबारों की सुर्ख़ियों और मंचों के भाषणों तक सीमित रह गई है. यह जनता को बहलाने और वोट की राजनीति करने का ज़रिया बन चुकी है

समाजसेवियों ने चेतावनी दी कि अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो आने वाली पीढ़ियाँ इस माँग को सिर्फ़ बीते ज़माने की भूली हुई कहानी मानेंगी |

ऐतिहासिक जड़ें: 1932 खतियान आखिर है क्या?

"1932 खतियान" ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन द्वारा 1932 में बिहार प्रांत (जिसमें आज का झारखंड शामिल था) में तैयार किए गए व्यापक भूमि सर्वेक्षण रिकॉर्ड को संदर्भित करता है। ये रिकॉर्ड, जिन्हें खतियान (भूमि रजिस्टर) कहा जाता है, भूमि मालिकों, किरायेदारों और निवासियों का विस्तृत दस्तावेज हैं, जो क्षेत्र की जनसांख्यिकी, संपत्ति अधिकारों और सामाजिक संरचना का एक स्नैपशॉट प्रदान करते हैं। झारखंड, जो 2000 में बिहार से अलग होकर मुख्य रूप से आदिवासी (मूल निवासी) और मूलवासी समुदायों को सशक्त बनाने के लिए बना, में ये रिकॉर्ड अब केवल प्रशासनिक दस्तावेज नहीं, बल्कि पहचान और हक का शक्तिशाली प्रतीक बन चुके हैं।

"स्थानीय" स्थिति के लिए 1932 खतियान को आधार मानने की मांग राज्य के गठन से जुड़ी है। झारखंड का निर्माण संसाधनों के शोषण, प्रवास-प्रेरित नौकरी विस्थापन और सांस्कृतिक क्षरण जैसी लंबे समय से चली आ रही शिकायतों से प्रेरित था, जो संथाल, ओरांव और मुंडा जैसे आदिवासी समूहों को प्रभावित करती हैं। स्वतंत्रता के बाद गैर-स्थानीय मजदूरों—खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश से—का खनन और औद्योगिक नौकरियों के लिए बड़ा प्रवाह इन मुद्दों को बढ़ावा दिया, जिससे सुरक्षात्मक नीतियों की मांग उठी। 2000 के दशक की शुरुआत में, कार्यकर्ताओं और राजनीतिक नेताओं ने 1932 रिकॉर्ड को "उद्देश्यपूर्ण" कटऑफ के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया: जो भी व्यक्ति इन रजिस्टरों में दिखता है (या उनके सीधे वंशज) उसे "झारखंडी" माना जाएगा, जो सरकारी नौकरियों, शिक्षा और भूमि अधिकारों में आरक्षण के योग्य होगा।

यह मनमाना नहीं था—1932 विभाजन के बाद बड़े प्रवास और औद्योगिक उछाल से पहले का समय है, जब आदिवासियों का अपने पूर्वजों की भूमि पर प्रभुत्व था। एक विश्लेषण के अनुसार, यह "औपनिवेशिक शोषण युग से पहले" का चित्रण करता है। आज, झारखंड की 38 मिलियन से अधिक आबादी में लगभग 26% आदिवासी हैं, और ये रिकॉर्ड आंशिक रूप से डिजिटाइज्ड हैं लेकिन अपूर्ण, जिससे सत्यापन पर विवाद जारी है।

राजनीतिक हथियार: विधानसभा बिल से सड़क प्रदर्शनों तक

झारखंड राजनीति में 1932 खतियान एक कालानुक्रमिक फ्लैशपॉइंट रहा है, जो पहचान की राजनीति को चुनावी रणनीति से जोड़ता है। यह केवल भूमि का मुद्दा नहीं—यह राज्य की खनिज-समृद्ध अर्थव्यवस्था (झारखंड भारत का 40% कोयला और 25% लौह अयस्क उत्पादन करता है) को नियंत्रित करने का प्रॉक्सी है। गैर-आदिवासी, अक्सर प्रवासियों या उनके वंशज, एक महत्वपूर्ण मतदान ब्लॉक बनाते हैं (लगभग 70% आबादी), जो पार्टियों के लिए नाजुक संतुलन पैदा करता है।

राजनीतिक यात्रा के प्रमुख पड़ाव:

  • 2000 का दशक: प्रारंभिक मांगें – शिबू सोरेन (जेएमएम संस्थापक) के नेतृत्व में राज्यhood आंदोलन के दौरान, खतियान मुद्दा "बाहरवालों" से झारखंड को "पुनः प्राप्त" करने के उपकरण के रूप में उभरा। जेएमएम ने इसे कोर एजेंडा बनाया, आदिवासी स्वायत्तता के लिए छठी अनुसूची संरक्षण से जोड़कर।
  • 2019-2022: विधायी धक्का – हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली जेएमएम-कांग्रेस गठबंधन ने 2019 में झारखंड स्थानीय व्यक्तियों (निश्चित अवधि रोजगार) बिल पेश किया, जिसमें 1932 खतियान को डोमिसाइल मानदंड के रूप में प्रस्तावित किया गया। इसका उद्देश्य निजी क्षेत्रों में गैर-स्थानीय भर्ती को सीमित करना और आरक्षण बढ़ाना था। बिल समाप्त हो गया लेकिन 2022 में पुनर्जीवित हुआ, जिसमें ओबीसी कोटा 27% बढ़ाने और "स्थानीय" को खतियान रिकॉर्ड से सख्ती से परिभाषित करने के प्रावधान थे। राज्यपाल रांची साहू ने इसे संवैधानिक चिंताओं का हवाला देकर लौटा दिया।
  • 2023: पुनः पारित और राज्यपाल का वीटो – विधानसभा ने दिसंबर 2023 में बिल को फिर पारित किया, "झारखंडी पहचान को संरक्षित" करने पर जोर देते हुए, बेरोजगारी (युवा दर ~25%) के बीच। हालांकि, राज्यपाल सी.पी. राधाकृष्णन ने एक वर्ष बाद इसे फिर लौटा दिया, जिससे बीजेपी पर केंद्र की हस्तक्षेप के आरोप लगे। यह देरी विपक्षी पार्टियों के लिए एक रैली क्राई बन गई।
  • 2024 चुनाव: चुनावी ट्रंप कार्ड – नवंबर 2024 के झारखंड चुनावों के दौरान, इंडिया ब्लॉक (जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी) ने खतियान-आधारित नीति को तुरंत लागू करने का वादा "सात गारंटी" में किया, सरना धार्मिक कोड और वित्तीय सहायता वृद्धि के साथ। बीजेपी ने 1932 के बाद के प्रवासियों के अधिकारों की रक्षा का वादा किया, इसे "विभाजनकारी" बताते हुए। मतदान ने आदिवासी वोटों को प्रभावित किया (जेएमएम ने 81 में से 47 सीटें जीतीं), लेकिन शहरी गैर-आदिवासी संशयी रहे, जो मुद्दे की ध्रुवीकरण क्षमता को उजागर करता है।

प्रदर्शन भावुक रहे हैं: 2022-23 में ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (एजेएसयू) जैसे आदिवासी समूहों द्वारा रेल रोको (ट्रेन अवरोध) और सड़क अवरोध ने 75% स्थानीय नौकरी आरक्षण के लिए खतियान सत्यापन की मांग की। फिर भी, उपयोगकर्ता द्वारा साझा किए गए सामाजिक कार्यकर्ताओं रामू सरदार, संत सिंह सरदार और राजू मुखी के अंश के अनुसार, ये आंदोलन "चुनावी बयानबाजी" में बदल गए हैं, युवा उदासीनता और दैनिक संघर्षों के साथ उत्साह कम हो गया। वे चेतावनी देते हैं कि बिना जमीनी गतिविधि के, मांग भविष्य की पीढ़ियों के लिए "भूली हुई कथा" बन जाएगी।

पार्टियों के रुख: एक त्वरित ब्रेकडाउन

पार्टी/गठबंधन 1932 खतियान पर रुख मुख्य तर्क
जेएमएम (शासक गठबंधन) मजबूत समर्थन – आदिवासी सशक्तिकरण का कोर प्रवास से आदिवासी भूमि/नौकरियों की रक्षा; राज्य विरासत से जुड़ा।
बीजेपी (विपक्ष) आंशिक समर्थन सुरक्षा के साथ समावेश चाहते हैं लेकिन प्रवासियों को बाहर करने का विरोध; 1951 जनगणना कटऑफ का समर्थन।
एजेएसयू/जेएवीएम(पी) आक्रामक पैरवी युवा-नेतृत्व वाले प्रदर्शन; तत्काल डिजिटाइजेशन और लागू करने की मांग।
इंडिया ब्लॉक सहयोगी (कांग्रेस/आरजेडी) वोटों के लिए समर्थन कल्याण वादों से बंधा; बीजेपी-विरोधी चाल के रूप में देखा।

व्यापक प्रभाव: पहचान, अर्थव्यवस्था और भविष्य के जोखिम

खतियान बहस झारखंड के अस्तित्वगत तनावों को रेखांकित करती है: राज्य का 76% हिस्सा वनाच्छादित है, फिर भी आदिवासियों के पास <10% भूमि ऐतिहासिक विस्थापन के कारण। इसे लागू करने से रोजगार (75-85% नौकरियां स्थानीयों के लिए आरक्षित) और खनन अनुबंधों को नया आकार मिल सकता है, जो आदिवासी आय बढ़ा सकता है लेकिन निवेशकों को हतोत्साहित कर सकता है। आलोचक तर्क देते हैं कि यह "सॉन्स-ऑफ-द-सॉइल" नेटिविज्म को बढ़ावा देता है, जो असम की एनआरसी विवादों की याद दिलाता है, और अंतर-विवाहों या विस्थापित परिवारों को नजरअंदाज करता है।

आर्थिक रूप से, झारखंड की प्रति व्यक्ति आय ~₹80,000 (राष्ट्रीय औसत से नीचे) के साथ, नीति 40% आदिवासी गरीबी दर को संबोधित कर सकती है लेकिन अनुच्छेद 14 (समानता) के तहत कानूनी चुनौतियों का जोखिम है। सामाजिक रूप से, यह एनिमिस्ट जनजातियों के लिए अलग "सरना धर्म कोड" की मांगों को बढ़ावा देता है, जो पहचान को शासन से जोड़ता है।




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Team India मैंने कई कविताएँ और लघु कथाएँ लिखी हैं। मैं पेशे से कंप्यूटर साइंस इंजीनियर हूं और अब संपादक की भूमिका सफलतापूर्वक निभा रहा हूं।