Aligarh Symposium: दार्शनिक सोच ने कैसे बदली कविता की परिभाषा?
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में भारतीय दर्शन और काव्यशास्त्र के संबंधों पर गहन चर्चा हुई। जानिए कैसे दार्शनिक विचारों ने साहित्य को नई दिशा दी।

Aligarh में हुआ अद्भुत Symposium, जिसने साहित्य की आत्मा को झकझोर दिया।
क्या आप जानते हैं कि प्लेटो, अरस्तू और वेदांत का काव्यशास्त्र से क्या रिश्ता है?
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) में हुई तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में ऐसे ही रोचक सवालों का जवाब तलाशा गया — वह भी पूरी दार्शनिक गहराई से।
यह संगोष्ठी भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद (ICPR) और AMU के संस्कृत विभाग द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित की गई थी, जिसका विषय था: “काव्यशास्त्र पर भारतीय दर्शन का प्रभाव”।
कार्यक्रम की शुरुआत एक अनोखे सांस्कृतिक संगम से हुई — एक ओर कुरान की तिलावत और दूसरी ओर वैदिक मंत्रों का पाठ। यही भारत की वह विविधता है जो इसे बाकी दुनिया से अलग बनाती है।
दार्शनिक विचार और काव्य की दुनिया
मुख्य उद्घाटन भाषण में कालीकट विश्वविद्यालय के प्रो. सी. राजेंद्रन ने बताया कि दर्शन और भाषा, दोनों का गहरा आपसी संबंध है। उन्होंने प्लेटो और अरस्तू जैसे पश्चिमी दार्शनिकों को भारतीय वेदान्त से जोड़ते हुए बताया कि कैसे साहित्य एक दार्शनिक पुल बन जाता है।
उन्होंने कहा, "अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय जैसी जगहें केवल शैक्षिक संस्थान नहीं, बल्कि दर्शन और साहित्य की प्रयोगशालाएं हैं।"
दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. वेद प्रकाश डिंडोरिया ने अपने बीज वक्तव्य में यह स्पष्ट किया कि भारतीय दर्शन ने साहित्यिक अभिव्यक्तियों को केवल सजाया नहीं, उन्हें दिशा भी दी। काव्यशास्त्र का उद्देश्य केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि सहानुभूति, करुणा और सामाजिक चेतना को जागृत करना भी है।
इतिहास की गहराइयों में संस्कृत और कविता
जामिया मिल्लिया इस्लामिया के कुलपति प्रो. मजहर आसिफ ने भारतीय दर्शन को ‘संवेदनाओं की आत्मा’ करार दिया। उन्होंने भगवान शिव के परिवार की विविधता का उदाहरण देते हुए कहा कि यह भारतीय सभ्यता की समरसता का प्रतीक है।
उन्होंने इकबाल की कविताओं की बात करते हुए बताया कि कैसे विविधता में एकता भारतीय दर्शन की जड़ है।
विशिष्ट अतिथि प्रो. सच्चिदानंद मिश्रा ने बताया कि काव्य को केवल शब्दों में नहीं, बल्कि परंपरा और संस्कृति के रेशों में समझा जा सकता है। उन्होंने मीर तकी मीर और इकबाल जैसे महान कवियों को उद्धृत किया और कहा कि कविता का अनुवाद केवल भाषिक नहीं, बल्कि दार्शनिक प्रक्रिया है।
संस्कृत: आधुनिकता में भी प्रासंगिक
AMU के कला संकाय के डीन प्रो. टी.एन. सतीसन ने संस्कृत की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, "संस्कृत न केवल एक भाषा है, बल्कि भारत की दार्शनिक आत्मा है।"
1919 के दार्शनिक परिदृश्य की बात करते हुए उन्होंने बताया कि कैसे संस्कृत ने भारत के बौद्धिक और साहित्यिक विमर्श को आकार दिया।
AMU की कुलपति प्रो. नईमा खातून ने अपने अध्यक्षीय भाषण में संस्कृत विभाग की ऐतिहासिक भूमिका की प्रशंसा की और सर सैयद के विचारों की झलक को दर्शाया। उन्होंने कहा कि AMU का संस्कृत विभाग भारत की विविधता और शिक्षा की समरसता का प्रमाण है।
उपस्थिति और समापन
इस संगोष्ठी में डॉ. नाजिश बेगम, डॉ. दीपशिखा सिंह, डॉ. आफताब आलम, डॉ. शगुफ्ता, डॉ. गुलाम फरीद साबरी और अन्य विद्वानों की उपस्थिति रही।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. शिवांगिनी टंडन और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. हेमबाला ने किया।
यह संगोष्ठी केवल दार्शनिक विमर्श का मंच नहीं थी, बल्कि भारतीय साहित्य और संस्कृति की उस गहराई को समझने का अवसर थी, जो सदियों से कविता के माध्यम से जीवित है।
भारतीय दर्शन और काव्यशास्त्र का यह मिलन आने वाले समय में साहित्य को नई दृष्टि देगा — ऐसी दृष्टि जो सिर्फ शब्द नहीं, संवेदनाएं भी गढ़ेगी।
अगर आप भी साहित्य और दर्शन की गहराइयों को समझना चाहते हैं, तो यह संगोष्ठी एक मिसाल बन चुकी है।
क्या आप तैयार हैं साहित्य को फिर से समझने के लिए — एक दार्शनिक नजरिए से?
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