हजल - 2 - नौशाद अहमद सिद्दीकी, भिलाई
घुट घुट के मर रहा हूं, मैं तो दुकान में, ठसके से सो रही है बेगम मकान में। .........
हजल
घुट घुट के मर रहा हूं, मैं तो दुकान में,
ठसके से सो रही है बेगम मकान में।
हर वक्त रहा करता हसीनों के ध्यान में,
कपड़े की तरह काश जो होता थान में।
हर वक्त हरकतों पे क्यों रखती हो तुम नजर,
क्या कह दिया है ऐसा पड़ोसन ने कान में।
बच्चों की चिल्ल पों से घबरा गया हूं अब,
जी चाहता है जाके रहूं बियाबान में।
इक तो मकान तंग है उस पर ये आफतें,
बीवी दीवान पे है और मैं दीवान में।
खुल जाता है क्यों तेरे मेरे प्रेम का बंधन,
नौशाद, कुछ कमी है शायद गठान में।
गज़लकार
नौशाद अहमद सिद्दीकी, भिलाई
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