Deoghar Murder Case : ₹200 के Dispute में 31 साल जेल, HC ने किया Release का आदेश

झारखंड हाईकोर्ट ने 31 साल बाद ₹200 के विवाद में उम्रकैद की सजा काट रहे तीन दोषियों को रिहा करने का आदेश दिया। जानिए इस लंबे मुकदमे की पूरी कहानी।

Dec 14, 2024 - 09:37
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Deoghar Murder Case : ₹200 के Dispute में 31 साल जेल, HC ने किया Release का आदेश
Deoghar: ₹200 के Dispute में 31 साल जेल, HC ने किया Release का आदेश

झारखंड के देवघर जिले से एक ऐसा मामला सामने आया है, जिसने भारतीय न्यायिक व्यवस्था की धीमी गति पर सवाल खड़े कर दिए हैं। सिर्फ ₹200 के विवाद में हत्या के दोषी ठहराए गए तीन लोगों को झारखंड हाईकोर्ट ने 31 साल बाद रिहा करने का आदेश दिया।

इस फैसले ने न केवल न्याय में देरी की तस्वीर को उजागर किया है, बल्कि यह भी दिखाया है कि कैसे छोटी-छोटी घटनाएं भी इंसानों की जिंदगी पर गहरा असर डाल सकती हैं।

1993 में ₹200 का कर्ज बना मौत की वजह

मामला 3 दिसंबर 1993 का है, जब देवघर के जसीडीह थाना क्षेत्र में ₹200 के लेन-देन को लेकर एक विवाद हुआ।

  • लखन पंडित, जो खेती-किसानी का काम करता था, ने नुनु लाल महतो से ₹200 उधार लिए थे।
  • जब नुनु लाल महतो ने कर्ज की रकम वापस मांगी, तो विवाद बढ़ गया।
  • इस विवाद ने हिंसक रूप ले लिया और लखन पंडित समेत अन्य आरोपियों ने नुनु लाल महतो पर हमला कर दिया, जिससे उनकी मौत हो गई।

महतो के बेटे भैरव ने इस घटना को अपनी आंखों से देखा और पुलिस में मामला दर्ज कराया।

1997 में सजा, 2000 में मामला झारखंड हाईकोर्ट में ट्रांसफर

1997 में देवघर की सत्र अदालत ने किशन पंडित, जमदार पंडित, लखी पंडित और लखन पंडित को हत्या का दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई।

  • दोषियों ने पटना हाईकोर्ट में अपील की और उन्हें जमानत मिल गई।
  • 2000 में बिहार विभाजन के बाद, मामला झारखंड हाईकोर्ट में स्थानांतरित कर दिया गया।

31 साल लंबित रहा मामला, हाईकोर्ट ने दी राहत

तीन दशक तक यह मामला न्यायिक प्रक्रिया के जाल में उलझा रहा।

  • सुनवाई के दौरान एक दोषी लखन पंडित की मौत हो गई।
  • शेष तीन दोषी किशन पंडित, जमदार पंडित और लखी पंडित की अपील पर हाईकोर्ट ने सुनवाई की।
  • अदालत ने पाया कि दोषी पहले ही जेल में 31 साल बिता चुके हैं।

झारखंड हाईकोर्ट ने शुक्रवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि दोषियों की उम्रकैद की सजा को उनके द्वारा पहले से बिताई गई जेल अवधि में बदल दिया जाए और उन्हें रिहा कर दिया जाए।

न्याय में देरी: सवालों के घेरे में भारतीय व्यवस्था

इस घटना ने भारतीय न्यायिक व्यवस्था की खामियों पर एक बार फिर से ध्यान खींचा है।

  • क्या 31 साल तक एक मामूली विवाद का फैसला पेंडिंग रहना सही है?
  • दोषियों ने अपने जीवन का सबसे बड़ा हिस्सा जेल में काट दिया।

यह मामला सिर्फ झारखंड का नहीं है। देशभर में लाखों मामले सालों से अदालतों में लंबित हैं, जिनमें आरोपी जेल में सजा काट रहे हैं, भले ही उनका दोष साबित न हुआ हो।

इतिहास में न्यायिक देरी के मामले

भारत में न्याय में देरी के मामले कोई नई बात नहीं हैं।

  • केशवनंद भारती केस: इस ऐतिहासिक केस में फैसला आने में 13 साल लगे।
  • हाशिमपुरा नरसंहार केस: 1987 की इस घटना का फैसला 2018 में आया।

इसी तरह, झारखंड का यह मामला ₹200 के छोटे से विवाद पर था, लेकिन इसका असर तीन परिवारों की पीढ़ियों पर पड़ा।

अदालत का फैसला और दोषियों की जिंदगी

31 साल बाद जेल से बाहर निकलने वाले दोषी अब बुजुर्ग हो चुके हैं।

  • हाईकोर्ट का यह फैसला मानवीय दया का प्रतीक माना जा रहा है।
  • लेकिन, यह सवाल भी उठाता है कि क्या इतनी देरी से मिला न्याय वास्तव में न्याय है?

न्याय की धीमी प्रक्रिया का समाधान जरूरी

यह मामला भारतीय न्यायपालिका के सुधार की जरूरत को रेखांकित करता है।

  • सरकार को तेज और प्रभावी न्याय प्रणाली सुनिश्चित करनी चाहिए।
  • लंबित मामलों के निपटारे के लिए फास्ट-ट्रैक कोर्ट का गठन आवश्यक है।

आखिरकार, न्याय में देरी न्याय से वंचित होने के बराबर है, और ₹200 के विवाद ने तीन लोगों की जिंदगी पर अमिट छाप छोड़ दी।

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Manish Tamsoy मनीष तामसोय कॉमर्स में मास्टर डिग्री कर रहे हैं और खेलों के प्रति गहरी रुचि रखते हैं। क्रिकेट, फुटबॉल और शतरंज जैसे खेलों में उनकी गहरी समझ और विश्लेषणात्मक क्षमता उन्हें एक कुशल खेल विश्लेषक बनाती है। इसके अलावा, मनीष वीडियो एडिटिंग में भी एक्सपर्ट हैं। उनका क्रिएटिव अप्रोच और टेक्निकल नॉलेज उन्हें खेल विश्लेषण से जुड़े वीडियो कंटेंट को आकर्षक और प्रभावी बनाने में मदद करता है। खेलों की दुनिया में हो रहे नए बदलावों और रोमांचक मुकाबलों पर उनकी गहरी पकड़ उन्हें एक बेहतरीन कंटेंट क्रिएटर और पत्रकार के रूप में स्थापित करती है।