स्वस्थता और अस्वस्थता की परिभाषा: अहंकार और परमात्मा से संबंध
अस्वस्थ मनुष्य मात्र है। जिन्हें हम साधारणतः स्वस्थ मानते हैं, वे भी स्वस्थ नहीं हैं। शरीर का स्वस्थ होना तो आसान, मनुष्य का स्वस्थ होना निश्चित ही कठिन है।
मनुष्य की अस्वस्थता से मेरा अर्थ क्या है? जब तक मनुष्य परमात्मा से टूटा—टूटा है, तब तक अस्वस्थ है। परमात्मा यानी यह विराट अस्तित्व। इससे अलग—थलग होना बीमार होना है।
स्वस्थ शब्द को भी ख्याल करो, उसका अर्थ होता है—स्वयं में जो स्थित हो गया है। और स्वयं में वही स्थित है, जो परमात्मा में स्थित है। क्योंकि स्व और परमात्मा, आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं हैं। मनुष्य अलग है, यही हमारी भ्रांति है और यही हमारे विषाद का मूल है। इसी भ्रांति को अहंकार कहते हैं। मैं अलग हूं, बस इस भ्रांति पर सारी भ्रांतियां निर्मित होती हैं। मैं अलग हूं, तो मुझे अपने को बचाना है। मैं अलग हूं, तो मुझे लड़ना है, जीतना है, सिद्ध करना है स्वयं को। प्रमाण देना है जगत को कि मैं कुछ हूं, विशिष्ट हूं, अद्वितीय हूं। धन कमाना है, कि बड़े पद पर पहुंचना है; यश कमाना है, कि प्रसिद्धि। मगर मुझे कुछ साबित करना है कि मैं साधारण नहीं हूं, असाधारण हूं, दूसरों से ऊपर हूं; किसी भी कारण—ज्ञान के कारण, त्याग के कारण, धन के कारण, पद के कारण—लेकिन मैं दूसरों से ऊपर हूं।
महत्वाकांक्षा का जन्म होता है, इस बीमारी के कारण कि मैं अलग हूं। और जो महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हो गया, ज्वरग्रस्त है और उसकी आत्मा में ज्वर है। उसकी आत्मा सड़ने लगेगी। अब कभी शांति न होगी। अब अशांति ही जीवन होगा। अब संताप और चिंता ही गहन होते जाएंगे। अब जीवन रोज—रोज नर्क की सीढ़ियां उतरेगा।
जिसने जाना कि मैं इस जगत के साथ एक हूं, भिन्नता छोड़ी। इस विराट के संगीत में एक अंग हो गया, एक स्वर हो गया। अपना छंद अलग न रखा। अपनी गति भिन्न न रखी! वही स्वस्थ हो जाता है।
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