क्या नोटों की गड्डी से मां की आवाज आएगी? कोलकाता हाई कोर्ट में बेटे की मौत के मामले में मुआवजा या न्याय?

कोलकाता हाई कोर्ट में एक मां ने बेटे की ऑक्सीजन की कमी से हुई मौत पर मुआवजे को ठुकराते हुए न्याय की मांग की। जानिए कैसे मुआवजा किसी मां का दर्द कम नहीं कर सकता और इस केस ने स्वास्थ्य सेवाओं पर सवाल खड़े किए।

Sep 6, 2024 - 16:28
Sep 8, 2024 - 13:36
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क्या नोटों की गड्डी से मां की आवाज आएगी? कोलकाता हाई कोर्ट में बेटे की मौत के मामले में मुआवजा या न्याय?
क्या नोटों की गड्डी से मां की आवाज आएगी? कोलकाता हाई कोर्ट में बेटे की मौत के मामले में मुआवजा या न्याय?

कोलकाता हाई कोर्ट में एक दिल को झकझोर देने वाला मामला सामने आया, जिसमें एक मां अपने बेटे की मौत पर मुआवजा लेने से इनकार कर न्याय की मांग कर रही है। 17 साल के शुभ्रजीत चटर्जी की मौत कोविड महामारी के दौरान ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई थी। मामला यह है कि क्या पैसे के जरिए किसी मां का दर्द कम किया जा सकता है? क्या मुआवजे की रकम बच्चे की जान का बराबर मूल्य हो सकती है?

यह घटना उस दर्दनाक हकीकत को उजागर करती है, जहां अस्पतालों की लापरवाही के कारण लोगों की जानें गईं, और अब उनका परिवार न्याय की गुहार लगा रहा है। कोलकाता हाई कोर्ट ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए इस पर कड़ा फैसला सुनाया है, जिसमें एक निजी नर्सिंग होम को मुआवजा देने का आदेश दिया गया है। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या इस मुआवजे से मां का दुख कम हो सकता है?

मुआवजे से दर्द कम होता है या नहीं?

सवाल उठता है कि मुआवजा देकर क्या किसी की जान की भरपाई की जा सकती है? शुभ्रजीत की मां, श्रावणी चटर्जी ने अदालत में मुआवजे को ठुकरा दिया और कहा कि उसे मुआवजा नहीं, न्याय चाहिए। अदालत के सामने उसने अपने आंसुओं से भरे शब्दों में कहा, "क्या नोटों की गड्डी से मेरी आवाज आएगी?" उसकी इस सवाल ने न सिर्फ अदालत को, बल्कि पूरे देश को सोचने पर मजबूर कर दिया है।

कई बार मुआवजा उन परिवारों को दिया जाता है जिन्होंने अपनों को खो दिया है, लेकिन क्या यह वाकई में उस दर्द को मिटा सकता है? मुआवजे की रकम एक आर्थिक मदद हो सकती है, लेकिन वह जख्म को भर नहीं सकती जो किसी अपने को खोने से मिलता है।

बेटे की मौत: कोविड या ऑक्सीजन की कमी?

कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह साफ हुआ कि शुभ्रजीत की मौत कोविड के कारण नहीं, बल्कि अस्पताल की लापरवाही और ऑक्सीजन की कमी के कारण हुई थी। एडवोकेट जयंत नारायण चटर्जी ने तर्क दिया कि शुभ्रजीत को समय पर ऑक्सीजन नहीं मिल पाई, जिसकी वजह से उसकी जान चली गई। यह मामला देश के उन हजारों परिवारों का प्रतिनिधित्व करता है जो कोविड के दौरान चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण अपनों को खो बैठे।

शुभ्रजीत को पहले ईएसआई हॉस्पिटल ले जाया गया था, फिर मिडलैंड नर्सिंग होम, सागरदत्त हॉस्पिटल, और अंततः कोलकाता मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल ले जाया गया। लेकिन दुर्भाग्य से, सभी जगहों पर चिकित्सा सुविधा में कोई कमी या देरी हुई, और अंततः रात के पौने दस बजे उसकी मृत्यु हो गई। सवाल यह उठता है कि क्या इस लापरवाही का मुआवजा देकर समाधान किया जा सकता है?

हाई कोर्ट की प्रतिक्रिया: न्याय की पुकार

कोलकाता हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस टी एस शिवंगनम और जस्टिस हिरणमय भट्टाचार्या की डिवीजन बेंच ने इस मामले में संवेदनशीलता दिखाई। सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा, "मुआवजे की यह रकम आपके बेटे को वापस नहीं ला पाएगी, लेकिन हम आपकी पीड़ा को समझते हैं। हम भी माता-पिता हैं, और हम उस दर्द को समझते हैं जो बच्चे को खोने से मिलता है।"

चीफ जस्टिस ने अपनी मां के साथ हुई एक पुरानी घटना का भी जिक्र किया, जिससे अदालत का माहौल और भावुक हो गया। यह सुनवाई इस बात का प्रमाण है कि न्यायपालिका न केवल कानूनी तौर पर, बल्कि मानवता के आधार पर भी काम कर रही है।

मुआवजे के पीछे का संघर्ष

श्रावणी चटर्जी का मुआवजे को ठुकराना इस बात का प्रतीक है कि वह अपने बेटे के लिए न्याय की मांग कर रही है, न कि पैसे की। यह संघर्ष उस मां का है जिसने अपने बेटे को खो दिया और अब वह सिस्टम से लड़ रही है ताकि ऐसी घटना दोबारा न हो। उसका यह कदम एक उदाहरण है कि कभी-कभी मुआवजे की पेशकश भी उस न्याय का स्थान नहीं ले सकती जिसकी मांग एक पीड़ित परिवार करता है।

क्या मुआवजा ही समाधान है?

मुआवजे की अवधारणा उन परिवारों के लिए है जो अपने प्रियजनों को खो चुके हैं। यह उन्हें आर्थिक मदद देने का एक तरीका है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह मुआवजा उस दर्द का हल हो सकता है? क्या यह किसी मां की वह आवाज वापस ला सकता है जो उसके बेटे के साथ खो गई?

मुआवजे का उद्देश्य न्याय देना नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार की सांत्वना होती है। लेकिन श्रावणी चटर्जी जैसे मामले यह सवाल उठाते हैं कि क्या आर्थिक सहायता ही एकमात्र समाधान है? क्या एक जिम्मेदार और संवेदनशील स्वास्थ्य प्रणाली ही असल में लोगों को बचा सकती है?

इस पूरे मामले का निष्कर्ष यह है कि मुआवजा कभी भी न्याय का विकल्प नहीं हो सकता। श्रावणी चटर्जी जैसे मामले हमें यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि पैसे से इंसानी जिंदगी की भरपाई नहीं की जा सकती। इस घटना ने यह साबित किया है कि सिर्फ मुआवजे से उस मां के दर्द को कम नहीं किया जा सकता जिसने अपने बेटे को खो दिया। असली न्याय तब मिलेगा जब स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार होगा और ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए जाएंगे।

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Chandna Keshri चंदना केशरी, जो गणित-विज्ञान में इंटरमीडिएट हैं, स्थानीय खबरों और सामाजिक गतिविधियों में निपुण हैं।