ग़ज़ल - 14 - नौशाद अहमद सिद्दीकी, भिलाई
मैं मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देता हूं, और मगरूर को नज़रों से गिरा देता हूं। .........
ग़ज़ल
मैं मोहब्बत से मोहब्बत का सिला देता हूं,
और मगरूर को नज़रों से गिरा देता हूं।
जब फिज़ाओं में महकता भी हूं खुशबू बनकर,
इस तरह आने वाले मौसम का पता देता हूं।
अपने अंदाज से जीता तो बड़े शान से,
दोस्त दुश्मन को भी हर वक्त दुआ देता हूं।
प्यार से देता हूं हर चाहने वालों को जवाब,
इस तरह हौसला उनका भी बढ़ा देता हूं।
नाम जब आपका लेता है आदाब से नौशाद,
सर अकीदत से मैं अपना भी झुका देता हूं।
गज़लकार
नौशाद अहमद सिद्दीकी,
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