Chakulia Tradition : सालों पुरानी 'शिकार परंपरा' को वन विभाग ने रोका, जानिए पूरी कहानी
चाकुलिया में हर साल की तरह इस बार भी ग्रामीण शिकार के लिए जंगल पहुंचे, लेकिन वन विभाग ने समय रहते रोक लगाकर परंपरा को नई दिशा दी। जानिए क्यों हो रही है इस परंपरा की समीक्षा।

पूर्वी सिंहभूम जिले के चाकुलिया क्षेत्र में सालों पुरानी एक आदिवासी परंपरा हर साल जंगलों की ओर ग्रामीणों की भीड़ खींच लाती है—"शिकार उत्सव"। लेकिन इस वर्ष इस परंपरा को नया मोड़ मिला, जब वन विभाग की सख्ती ने न केवल ग्रामीणों को जंगल से लौटाया, बल्कि उन्हें वन्यजीव संरक्षण का महत्व भी समझाया।
शिकार उत्सव की ऐतिहासिक झलक
झारखंड और आसपास के क्षेत्रों में 'शिकार परंपरा' की जड़ें बहुत पुरानी हैं। इसे "बुरुडी शिकार" या "शिकार खेल" कहा जाता है, जिसमें हर साल गर्मियों की शुरुआत में दर्जनों गांवों के लोग पारंपरिक हथियारों जैसे तीर, भाला, कुल्हाड़ी और टांगी लेकर जंगलों की ओर निकलते हैं। इस परंपरा का मुख्य उद्देश्य भोजन जुटाना नहीं, बल्कि सामूहिक शक्ति, उत्सव और परंपरा का उत्सव मनाना होता है।
लेकिन बदलते समय के साथ अब यह परंपरा वन्यजीवों के लिए खतरा बन चुकी है। यही कारण है कि इस साल चाकुलिया वन क्षेत्र में इस उत्सव को रोकने के लिए वन विभाग को खुद मैदान में उतरना पड़ा।
वन विभाग की सतर्कता और तत्काल कार्रवाई
इस वर्ष भी राजाबासा गांव से सटे साल जंगल में दर्जनों ग्रामीण पारंपरिक हथियारों से लैस होकर शिकार खेलने पहुंचे। लेकिन जैसे ही वन विभाग को ग्रामीणों की गतिविधियों की खबर मिली, प्रभारी फॉरेस्टर कल्याण महतो के नेतृत्व में वनकर्मी तुरंत मौके पर पहुंचे।
वनकर्मियों ने जंगल की ओर बढ़ रहे लोगों को रास्ते में रोककर समझाया-बुझाया और जंगल में प्रवेश करने से मना किया। वहीं जो लोग पहले ही जंगल में प्रवेश कर चुके थे, उन्हें माइकिंग के जरिए जागरूक किया गया और आग्रह किया गया कि वे शिकार न करें और वापस लौट आएं।
शिकारियों का वापसी का सफर
वन विभाग की अपील का असर साफ दिखा। जंगल में पहुंचे सभी ग्रामीण स्वेच्छा से बाहर निकल आए। किसी तरह का बल प्रयोग नहीं करना पड़ा, न ही किसी को हिरासत में लिया गया। यह इस बात का संकेत है कि यदि सही समय पर संवाद और जागरूकता हो, तो पुरानी परंपराओं को भी संरक्षण के दायरे में लाया जा सकता है।
पर्यावरण संरक्षण बनाम परंपरा: एक विचारणीय विषय
यह घटना एक बड़ी बहस को जन्म देती है—परंपरा बनाम संरक्षण। आदिवासी समाज की परंपराएं सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध हैं, लेकिन जब ये परंपराएं प्रकृति और जीव-जंतुओं के लिए खतरा बनने लगें, तो उनका पुनर्मूल्यांकन आवश्यक हो जाता है।
वन विभाग ने न केवल इस साल शिकार उत्सव को रोका, बल्कि ग्रामीणों को वन्य जीवों के महत्व और पर्यावरण संरक्षण की जानकारी भी दी। लोगों को यह बताया गया कि वन्यजीव पारिस्थितिकी तंत्र का अहम हिस्सा हैं और उनके बिना जंगलों का संतुलन बिगड़ सकता है।
आगे की रणनीति: जागरूकता ही समाधान
वन विभाग के अनुसार, केवल एक बार रोकने से समाधान नहीं निकलेगा। जरूरत है निरंतर जन-जागरूकता अभियानों की, स्कूलों, पंचायतों और स्थानीय समाजों में सकारात्मक संवाद की। यदि लोगों को बताया जाए कि कैसे उनकी परंपरा आज के पर्यावरणीय संकट में बदलाव की मांग कर रही है, तो वो खुद पहल करेंगे।
बदलाव की शुरुआत हो चुकी है
चाकुलिया का यह घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि समाज बदलाव के लिए तैयार है—बस जरूरत है सही दिशा दिखाने की। जहां एक ओर परंपरा है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरण और जीवों की रक्षा की जिम्मेदारी भी है।
शिकार उत्सव अब सिर्फ जंगल में जाने और जानवरों को मारने तक सीमित नहीं रह गया, बल्कि यह एक संवाद का माध्यम बन रहा है—जहां परंपरा और संरक्षण के बीच संतुलन बनाने की कोशिशें हो रही हैं।
क्या आने वाले वर्षों में यह परंपरा किसी नए रूप में लौटेगी—जहां शिकार न होकर सांस्कृतिक उत्सव हो? यह देखना दिलचस्प होगा। लेकिन इतना तय है कि इस बार की शुरुआत एक बड़ा संकेत है—कि संस्कृति बच सकती है, लेकिन प्रकृति को नुकसान पहुंचाए बिना।
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