Aligarh Sangoshthi: जब काव्यशास्त्र और दर्शन ने खोले साहित्य के रहस्य!
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आयोजित संगोष्ठी में भारतीय काव्यशास्त्र और दर्शन की अद्भुत संगति पर चर्चा हुई। विद्वानों ने बताया कि कविता केवल शब्दों का खेल नहीं बल्कि आत्मा और चेतना की गहराई है। जानिए किस तरह नाट्यशास्त्र, वेदांत और वक्रोक्ति के माध्यम से साहित्य को नया अर्थ मिला।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के संस्कृत विभाग और भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद (ICPR) के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में “काव्यशास्त्र पर भारतीय दर्शन का प्रभाव” विषय पर गहन विमर्श हुआ। यह संगोष्ठी केवल एक शैक्षणिक आयोजन नहीं बल्कि भारतीय साहित्य और दर्शन की आत्मा में झांकने का माध्यम बन गई।
इस संगोष्ठी में साहित्य, दर्शन और भाषा के ऐसे सूत्रों को जोड़ने की कोशिश की गई, जो भारतीय ज्ञान परंपरा की गहराई को दर्शाते हैं। चार तकनीकी सत्रों में देशभर से आए विद्वानों ने काव्यशास्त्र को केवल कविता या सौंदर्य शास्त्र नहीं, बल्कि एक दार्शनिक दृष्टिकोण के रूप में प्रस्तुत किया।
इतिहास की परतों से – काव्यशास्त्र और दर्शन का युग्म
भारतीय काव्यशास्त्र की जड़ें भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से लेकर आनंदवर्धन के ध्वन्यालोक और कुंतक के वक्रोक्तिजीविता तक फैली हैं। ये ग्रंथ न केवल सौंदर्यशास्त्र की बुनियाद रखते हैं, बल्कि जीवन, आत्मा और ब्रह्म की खोज का दार्शनिक मार्ग भी दिखाते हैं।
AMU की इस संगोष्ठी में यही ऐतिहासिक गहराई सामने आई, जब प्रो. ओमकार उपाध्याय ने नाट्यशास्त्र में तत्वमीमांसा और अद्वैतशैव दर्शन के संबंध को विस्तार से समझाया। उन्होंने बताया कि रस केवल नाट्य का भाव नहीं बल्कि आत्मा की अनुभूति है।
विचारों की गूंज – विद्वानों का संवाद
प्रो. सच्चिदानंद मिश्रा और प्रो. आरिफ नज़ीर की अध्यक्षता में प्रारंभिक सत्र में प्रो. सी. राजेंद्रन ने वेदों की व्याख्या करते हुए पाठकों के अनुभव की बात की। प्रो. मीरा द्विवेदी ने संस्कृत कविता की संवेदनशीलता को रेखांकित किया, जबकि प्रो. एस.पी. शर्मा ने दर्शन की परंपरा और काव्यशास्त्र की अंतर्संबंधता को स्पष्ट किया।
दूसरे सत्र में प्रो. सरोज कौशल और प्रो. संध्या कुमारी ने शब्द शक्ति और अलंकारों के माध्यम से भारतीय दर्शन की छाया को काव्यशास्त्र पर उकेरा। डॉ. शुभ्रजित सेन ने विशेष रूप से अलंकारों पर दर्शन के प्रभाव को रेखांकित किया।
जब काव्य बना आत्मा की आवाज़
तीसरे सत्र की वक्ता प्रो. शिवानी शर्मा ने कहा, "कविता चित्त की मुक्ति की बात करती है।" उन्होंने रीति, धर्म और सत्य के त्रिचक्र का उल्लेख करते हुए बताया कि भारतीय काव्यशास्त्र केवल सौंदर्य नहीं, बल्कि मुक्ति का माध्यम भी है।
प्रो. एम. शाहुल हमीद ने तमिल साहित्य और अगस्त्य मुनि के दर्शन पर अपने विचार रखे। डॉ. बृजेंद्र कुमार ने “साहित्य दर्पण” और डॉ. जहाँआरा ने महाभारत में धर्मशास्त्र की तत्वमीमांसा की गहराईयों को उजागर किया।
साहित्य और दर्शन का वैश्विक संवाद
चतुर्थ सत्र में प्रो. सी. राजेंद्रन ने “सत्यम शिवम सुंदरम” विषय पर भारतीय और जर्मन दार्शनिक दृष्टिकोण की तुलना की। उन्होंने मैकॉले के उस विवादित कथन को याद दिलाया जिसमें भारतीय ज्ञान परंपरा को तुच्छ बताया गया था और बताया कि आज भी हमारी बौद्धिक चेतना उपनिवेशवादी प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाई है।
प्रो. मोहम्मद रिज़वान खान ने शेक्सपियर के “To be or not to be” संवाद को ध्वनि सिद्धांत से जोड़कर भारतीय और पाश्चात्य काव्यशास्त्र की समानताओं और अंतर को उजागर किया।
शोध और नवदृष्टि – युवा शोधार्थियों का योगदान
संगोष्ठी के दौरान कई शोध छात्रों ने अपने शोधपत्र प्रस्तुत किए, जिनमें काव्यशास्त्र और दर्शन के गूढ़ संबंधों की व्याख्या की गई। यह युवाओं के लिए एक ऐसा मंच साबित हुआ जहां वे परंपरा और आधुनिकता के बीच सेतु बना सके।
जब कविता दार्शनिक हो जाए
AMU की यह संगोष्ठी इस बात का प्रमाण थी कि काव्यशास्त्र केवल साहित्य नहीं, आत्मा का दर्शन है। भारतीय साहित्य की आत्मा को समझने के लिए केवल भाषा नहीं, बल्कि दर्शन की समझ आवश्यक है।
यह आयोजन आने वाली पीढ़ियों को यह संदेश देता है कि जब कविता में दर्शन झलकता है, तब वह केवल शब्द नहीं, चेतना बन जाती है।
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