Ranchi Crisis: रिम्स में दवा संकट, मरीजों मरीजों को रोजाना 8-10 लाख रुपये की दवाएं निजी दुकानों से खरीदनी पड़ रही हैं।

रांची के रिम्स अस्पताल में दवा संकट के चलते मरीजों को रोजाना 8-10 लाख रुपये की दवाएं निजी दुकानों से खरीदनी पड़ रही हैं। जानें क्यों नहीं हो रही समस्या का समाधान।

Dec 2, 2024 - 10:12
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Ranchi Crisis: रिम्स में दवा संकट, मरीजों मरीजों को रोजाना 8-10 लाख रुपये की दवाएं निजी दुकानों से खरीदनी पड़ रही हैं।
Ranchi Crisis: रिम्स में दवा संकट, मरीजों की जेब से रोज निकल रहे लाखों

रांची: झारखंड की राजधानी रांची में स्थित राज्य का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (रिम्स), इन दिनों अपने दवा संकट के कारण सुर्खियों में है। यहां भर्ती मरीजों और उनके परिजनों को अस्पताल से दवा न मिलने की वजह से रोजाना लाखों रुपये की दवाएं निजी दुकानों से खरीदनी पड़ रही हैं।

आधिकारिक तौर पर, रिम्स प्रशासन का दावा है कि उनके पास पर्याप्त मात्रा में दवाएं हैं। मगर असलियत यह है कि हर दिन करीब 8 से 10 लाख रुपये की दवाएं बाहर से खरीदी जा रही हैं।

रोजाना दवाओं की खरीदारी: आंकड़े और तथ्य

  1. प्रति मरीज खर्च:

    • रिम्स में रोजाना करीब 1600 मरीज भर्ती रहते हैं।
    • हर मरीज औसतन ₹500-₹2000 तक की दवाएं निजी दुकानों से खरीदने को मजबूर है।
    • अगर कोई मरीज 3-4 दिन भर्ती रहता है, तो यह खर्च ₹2000 से अधिक हो जाता है।
  2. कुल खर्च:

    • हर दिन, 80% से अधिक मरीजों को बाहर से दवा मंगानी पड़ती है।
    • कुल मिलाकर, मरीज और उनके परिजन रोजाना करीब 8-10 लाख रुपये की दवाएं खरीद रहे हैं।

आपातकालीन मरीजों पर दबाव

रिम्स में इमरजेंसी में आने वाले मरीजों को अक्सर डॉक्टरों द्वारा बाहर से दवा और सर्जिकल सामान खरीदने के लिए कहा जाता है।

  • कई बार इमरजेंसी में भर्ती मरीजों का खर्च ₹10,000 से अधिक तक पहुंच जाता है।
  • यहां तक कि ऑपरेशन के दौरान इस्तेमाल होने वाले छोटे-छोटे सर्जिकल उपकरण भी मरीजों को खुद खरीदने पड़ते हैं।

अस्पताल का पक्ष: दवाएं हैं, लेकिन क्यों नहीं मिलती?

रिम्स प्रबंधन का कहना है कि:

  • अस्पताल में अधिकांश दवाएं स्टॉक में उपलब्ध हैं।
  • केवल वही दवाएं बाहर से मंगाई जाती हैं जो अस्पताल में उपलब्ध नहीं होतीं।
  • इन दवाओं को अमृत फॉर्मेसी से लाने का प्रावधान है।

हालांकि, वास्तविकता यह है कि मरीजों को हर छोटी-बड़ी दवा के लिए निजी दुकानों का रुख करना पड़ता है।

इतिहास में भी रही है समस्या

रिम्स में दवाओं की कमी कोई नई समस्या नहीं है।

  • 2016: दवा आपूर्ति सुधारने के लिए अमृत फॉर्मेसी की शुरुआत की गई।
  • 2018: सरकार ने कॉमन दवाओं की पहचान कर उन्हें स्टॉक में रखने का निर्णय लिया।
  • 2023: अब तक इस योजना को लागू नहीं किया जा सका।

स्थानीय दवा दुकानों का बढ़ता कारोबार

रिम्स के आसपास दवा दुकानों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

  • यहां दो दर्जन से अधिक दवा की दुकानें हैं।
  • इन दुकानों पर अधिकतर खरीदार रिम्स के मरीज और उनके परिजन होते हैं।

समस्या का समाधान क्या हो सकता है?

  1. कॉमन दवाओं की सूची तैयार हो:
    उन दवाओं की पहचान होनी चाहिए जो बार-बार बाहर से मंगानी पड़ती हैं और उन्हें स्टॉक में शामिल किया जाए।

  2. अमृत फॉर्मेसी को सशक्त किया जाए:
    मरीजों को अमृत फॉर्मेसी से ही दवा लेने के लिए प्रेरित किया जाए।

  3. कठोर नियम लागू हों:
    डॉक्टरों और विभागों पर यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी हो कि मरीजों को दवाएं अस्पताल के स्टॉक से ही मिलें।

  4. स्थानीय दुकानों की निगरानी:
    निजी दुकानों के संचालन पर कड़ी निगरानी रखी जाए।

रिम्स में दवा संकट केवल प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा नहीं है, बल्कि यह राज्य की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की कमजोरियों को भी उजागर करता है। मरीजों और उनके परिजनों पर बढ़ते आर्थिक दबाव को कम करने के लिए रिम्स प्रबंधन और झारखंड सरकार को मिलकर तत्काल प्रभावी कदम उठाने होंगे।

आपकी राय: क्या सरकारी अस्पतालों में दवाओं की उपलब्धता पूरी तरह मुफ्त होनी चाहिए? अपनी राय नीचे कमेंट में साझा करें।

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Manish Tamsoy मनीष तामसोय कॉमर्स में मास्टर डिग्री कर रहे हैं और खेलों के प्रति गहरी रुचि रखते हैं। क्रिकेट, फुटबॉल और शतरंज जैसे खेलों में उनकी गहरी समझ और विश्लेषणात्मक क्षमता उन्हें एक कुशल खेल विश्लेषक बनाती है। इसके अलावा, मनीष वीडियो एडिटिंग में भी एक्सपर्ट हैं। उनका क्रिएटिव अप्रोच और टेक्निकल नॉलेज उन्हें खेल विश्लेषण से जुड़े वीडियो कंटेंट को आकर्षक और प्रभावी बनाने में मदद करता है। खेलों की दुनिया में हो रहे नए बदलावों और रोमांचक मुकाबलों पर उनकी गहरी पकड़ उन्हें एक बेहतरीन कंटेंट क्रिएटर और पत्रकार के रूप में स्थापित करती है।