दरिंदों को फांसी, कब तक ? - अर्चना जी, उत्तर प्रदेश
दरिंदों को फांसी कब तक ? आखिर कब तक हम किसी बिटिया के बलात्कार का मातम मनाते रहेंगे। कब तक ? मोमबत्तियां लेकर मौन श्रद्धांजलि देते रहेंगे। या फिर कब तक ? धरना प्रदर्शन,नारेबाजी से काम चलाते रहेंगे ।........
दरिंदों को फांसी कब तक ? आखिर कब तक हम किसी बिटिया के बलात्कार का मातम मनाते रहेंगे। कब तक ? मोमबत्तियां लेकर मौन श्रद्धांजलि देते रहेंगे। या फिर कब तक ? धरना प्रदर्शन,नारेबाजी से काम चलाते रहेंगे ।
कब तक,कब तक_ _ _ _ _ _?
ये सोचने वाली बात है कि क्या ये हमारी समस्या का स्थाई समाधान है ?
एक भारतीय अभिनेता का बयान - "भारत में महिलाएं, बच्चे और जानवर सुरक्षित नहीं हैं, और यह बहुत दुखद है,भारतीय पुरुषों को समझने की जरूरत है कि अपनी महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करें, ये बहुत अहम है, हर औरत के लिए एक आदमी को एक रक्षक होना चाहिए।"
क्यों ? एक औरत समाज में सुरक्षित नहीं रह सकती।
क्यों? उसे अपनी सुरक्षा के लिए पुरुषों को ढाल बनाना पड़ता है।
क्या ? वो एक इंसान नहीं है।
समाज में दिनोंदिन बढ़ रही इस तरह की घातक मनोवृत्तियों को देखते हुए, इस तरह की चिंता जायज है।
इसका प्रमुख कारण हमारे समाज की पुरुषवादी सोच है।
जिसके वजह से, सदियों से महिलाओं को घर की चहारदीवारी में बांध कर रखा गया। इसका एक मात्र कारण महिलाओं का पुरुषों की अपेक्षा शारीरिक रूप से कमजोर होना है। जो कि एक प्राकृतिक देन है।
लेकिन अगर एक पुरुष, महिला की अपेक्षा शारीरिक रूप से मजबूत है तो महिलाओं में भी पुरुषों की अपेक्षा कुछ विशेष गुण निहित होते हैं, जैसे कि - धैर्य,सहनशीलता,ममता, वात्सल्य,जनन क्षमता, जिसकी वजह से वो सृष्टि को धारण करती है,जो कि पुरुष नहीं कर सकता।
लेकिन आखिर क्या कारण है कि एक पुरुष को, एक महिला में सिर्फ उसकी देह ही दिखाई देती है। उसके अंदर के गुण, उसकी काबिलियत नहीं दिखाई देती।
एक महिला एक डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक,लेखक,राजनेता हो सकती है। वो उसे दिखाई नहीं देता। दिखाई देती है तो सिर्फ उसकी शरीर।
दरअसल ये हमारे समाज की एक घृणित मानसिकता है।
जिसकी शुरुआत हमारे घर से ही होती है। जहां बेटियों को शुरू से ही देह केंद्रित बना कर रखा जाता है। उनकी शिक्षा और शारीरिक मजबूती की अपेक्षा शारीरिक सुंदरता और सजने - संवरने पर अधिक ध्यान दिया जाता है। जिसका मुख्य कारण हमारे समाज में शादी की अनिवार्यता। हमारे जीवन का प्रथम लक्ष्य एक इंसान बनना होता है। जिससे भटक कर हमने शादी और संतानोत्पत्ति को ही अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बना लिया है। हम पूरी तरह से देह केंद्रित जीवन जीते हैं।
हम अपनी इज्जत का दारोमदार भी पूरी तरह से बेटियों के कंधे पर लाद देते हैं। अगर कोई किसी से अपनी दुश्मनी निकालना चाहता है तो, वो उसके बहन- बेटियों पर हमला करता है। हमारा अतीत भी इसका गवाह रहा है। जब कभी भी आक्रमण, दंगे या फिर लूटपाट की घटनाएं हुई हैं। महिलाओं को शिकार बनाया गया है। इतिहास में हमें जौहर भी इसी कारण देखने को मिले हैं।
लेकिन क्या ? ये साफ - साफ दिखाई नहीं देता कि इसका सीधा सा कारण ताकत और वर्चस्व में निहित है।
जिसके कारण सदियों से अमीर - गरीब पर, सबल - निर्बल पर, सवर्ण - शुद्र पर और पुरुष - महिला पर शासन करता आया है।
जब तक अमीर- गरीब, सबल - निर्बल, सवर्ण - शुद्र और पुरुष - महिला के बीच भेद होते रहेंगे, तब तक हम इस समस्या से निजात नहीं पा सकेंगे। अगर हमें कुछ बदलना है तो, वो हमारी अपनी मनोवृत्ति है। हमारी अपनी सोच है।
जिसके कारण हम एक इंसान को सिर्फ महिला और पुरुष की नज़र से देखते हैं।
क्या ? एक महिला, महिला होने से पूर्व एक इंसान नहीं है।
क्या ? उसके अंदर चेतना नहीं है। चेतना में तो कोई भेद नहीं होता, चाहे वो पुरुष की हो या फिर एक महिला की।
हम जो देह केंद्रित जीवन जीते हैं। फिर यहीं से शुरू होती है, महिलाओं पर अत्याचार की कहानी।
अगर हम एक सुरक्षित समाज चाहते हैं तो, पहले हमें अपने आप को बदलना होगा। अपने अंदर के असत्य,लोभ,मोह, क्रोध,ईर्ष्या,स्वार्थ को त्यागना होगा।
और सत्य,प्रेम,करुणा,दया,सहनशीलता,संतोष को अपने अंदर आत्मसात करना होगा। तब जाकर हमारे समाज में एक सकारात्मक बदलाव आएगा।
नहीं मिटेगा जब तक,अपने - पराए का भेद।
कैसे होगा तब तक,समाज से व्यभिचार का विच्छेद।।
होगा अंतस् में,जब तक अहम्, अंधकार का कीड़ा।
नहीं उठेगी दिल में, तब तक प्रेम और परपीड़ा।।
उठो! हुंकार भरो,
हटाओ निज हृदय से,हिंसा,हत्या,संकुचित सोच,अहंकार।
मिटाओ अपने मन से,किसी बिटिया के प्रति बलात्कार।।
आओ मिल बनें हम, सत्य,अहिंसा,करुणा का कर्णधार।
बनें समाज के हम,सुख,शांति का सूत्रधार।
अलख जगाएं प्रेम का,करें मन से मनुहार।
मन से मनभेद मिटा,मनाएं मानवता का त्यौहार।।
स्वरचित मौलिक : अर्चना,
गाजीपुर, उत्तर प्रदेश
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