Jamshedpur Struggle: जमीन पर घिसटती लक्ष्मी, 6 महीने से नहीं मिली विकलांग पेंशन
जमशेदपुर की लक्ष्मी दोनों पैरों से विकलांग हैं और पिछले 6 महीनों से पेंशन के लिए सरकारी दफ्तरों के चक्कर काट रही हैं, लेकिन अब तक सिर्फ आश्वासन मिला है, राहत नहीं।

जमशेदपुर: क्या आपने कभी किसी को ज़मीन पर घिसटते हुए सरकारी दफ्तर में प्रवेश करते देखा है, वो भी सिर्फ 1,000 रुपये की विकलांग पेंशन के लिए? जमशेदपुर जिले के धतकीडीह की रहने वाली लक्ष्मी देवी की कहानी सरकार की “सामाजिक सुरक्षा” योजनाओं की हकीकत को नंगा कर देती है।
लक्ष्मी के दोनों पैर पूरी तरह से काम नहीं करते। अपने पति को खो चुकी लक्ष्मी की दो बेटियां हैं, जिनकी शादी हो चुकी है। अब वो घर पर अकेली रहती हैं। न चल सकती हैं, न कमाई का कोई जरिया है। उनका जीवन पूरी तरह से दिव्यांग पेंशन पर निर्भर है। लेकिन विडंबना यह है कि पिछले 6 महीनों से उन्हें एक रुपया भी पेंशन नहीं मिला है।
जमीन पर घिसटती लक्ष्मी, सरकारी दफ्तर में उम्मीद की तलाश
लक्ष्मी जब भी पेंशन की उम्मीद लेकर समाहरणालय स्थित सामाजिक सुरक्षा विभाग कार्यालय पहुंचती हैं, तो दफ्तर में मौजूद क्लर्क उन्हें हर बार सिर्फ एक ही जवाब देकर लौटा देते हैं— “इस बार आपके पैसे आ जाएंगे।” लेकिन हर बार की तरह उनका खाता खाली रह जाता है।
लक्ष्मी ने बताया, “मैं अपने हाथों के सहारे खुद को घसीटते हुए दफ्तर पहुंचती हूं। पैरों से एक कदम चलना भी मुमकिन नहीं है। फिर भी हर बार सिर्फ आश्वासन मिलता है, पैसे नहीं।”
ये वही कार्यालय है जहाँ लाखों लोगों को “सुरक्षा” देने का दावा किया जाता है। लेकिन जब ज़मीन पर रेंगती एक महिला वहां तक पहुंचती है, तब भी उसे अनदेखा कर दिया जाता है।
विकलांग पेंशन बनी जीवनरेखा
लक्ष्मी के पास कोई ज़मीन नहीं, न आय का कोई दूसरा जरिया। उनके लिए पेंशन की 1,000 रुपये की राशि भी जीवन का आधार है। यही उनकी रसोई जलाने का, दवाएं खरीदने का और जीने की एकमात्र उम्मीद है।
इतिहास गवाह है कि विकलांगों के अधिकारों को लेकर सरकारें वादे तो करती रही हैं, लेकिन ज़मीन पर सच्चाई कुछ और ही है। 2006 में विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम लागू हुआ था, जो दिव्यांग जनों को गरिमामय जीवन की गारंटी देता है। लेकिन लक्ष्मी जैसे लाखों लोग आज भी सिर्फ “कागज़ी अधिकार” लेकर जी रहे हैं।
सिस्टम की चुप्पी, आम जनता की बेबसी
सोचिए, जब एक विकलांग महिला 6 महीने से बिना पेंशन के जी रही हो, तो वो किस हालत में होगी? लक्ष्मी कहती हैं, “अब खाने को भी कुछ नहीं है। पड़ोसियों से मांगकर किसी तरह दो वक़्त का खाना जुटा रही हूं। सरकारी बाबू सुनते ही नहीं।”
यह मामला अकेली लक्ष्मी का नहीं है। झारखंड में हजारों ऐसे दिव्यांग हैं, जिनकी पेंशन महीनों से अटकी हुई है। सरकारी सिस्टम की लेटलतीफी और संवेदनहीनता ने सामाजिक सुरक्षा योजना को एक मज़ाक बना दिया है।
सवाल उठता है: कब जागेगा सिस्टम?
कई बार मीडिया में रिपोर्ट आने के बावजूद प्रशासन की तरफ से कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। क्लर्क स्तर पर जानकारी देने की जगह टाल-मटोल होती है। क्या सरकार की कल्याणकारी योजनाएं सिर्फ घोषणाओं तक सीमित रह गई हैं?
सरकारों ने विकलांगों के लिए सुविधाएं देने की बड़ी-बड़ी घोषणाएं की हैं, लेकिन लक्ष्मी जैसी महिलाओं की हालत देखकर सवाल उठते हैं कि क्या ये सिर्फ वोटबैंक की राजनीति है?
अब ज़रूरत है ठोस कदमों की
सरकार को चाहिए कि ऐसे मामलों में तत्काल हस्तक्षेप करे। सामाजिक सुरक्षा विभाग को जवाबदेह बनाया जाए। तकनीकी बहाने और कागजी प्रक्रियाएं किसी का जीवन नहीं चला सकतीं।
लक्ष्मी की कहानी हमें उस कड़वी सच्चाई से रूबरू कराती है, जिसमें "दिव्यांग पेंशन" सिर्फ एक सरकारी फाइल बनकर रह गई है। ज़मीन पर घिसटती लक्ष्मी सिर्फ एक महिला नहीं, बल्कि एक सवाल है— क्या हमारा सिस्टम अब भी इंसानियत बचा कर रखे हुए है?
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