छत्तीसगढ़ रत्न डॉ. शिरोमणि माथुर: दल्ली की अनमोल धरोहर का प्रेरक जीवन सफर!
जानिए छत्तीसगढ़ की अद्वितीय महिला शक्ति, डॉ. शिरोमणि माथुर के जीवन की प्रेरक यात्रा, जिन्होंने समाज सेवा से लेकर साहित्य और राजनीति में अपनी अमिट छाप छोड़ी। पढ़ें उनकी असाधारण उपलब्धियों और संघर्षों की रोमांचक दास्तान!
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छत्तीसगढ़ रत्न डॉ. शिरोमणि माथुर: प्रेरणादायक जीवन की अनकही दास्तान
क्या आप जानते हैं कि छत्तीसगढ़ के दल्ली राजहरा की धरती न सिर्फ लौह अयस्क, बल्कि हीरे भी उगलती है? जी हां, हम बात कर रहे हैं उस अद्वितीय शख्सियत की, जिनका नाम है डॉ. शिरोमणि माथुर, जिन्हें हाल ही में 'छत्तीसगढ़ रत्न' से सम्मानित किया गया। आइए, उनके 79वें जन्मदिवस के इस विशेष अवसर पर जानें उनके जीवन की ऐसी अनसुनी बातें, जो आपको हैरान कर देंगी और प्रेरित भी!
शुरुआत: एक महान परिवार का उदय
डॉ. शिरोमणि माथुर का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो न सिर्फ भौतिक रूप से संपन्न था, बल्कि सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों का भी प्रतीक था। उत्तर प्रदेश के एटा जिले के कादरगंज गाँव में जन्मी शिरोमणि जी का जीवन शुरुआत से ही प्रेरणाओं से भरा हुआ था। उनके पिता स्व. रामदास जी गुप्ता एक आदर्शवादी और प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे, जिन्होंने अपने जीवन को सामाजिक और राजनीतिक सेवा में समर्पित कर दिया। रामदास जी अपने क्षेत्र के सम्मानित जमींदारों में से एक थे, लेकिन उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा समाज सेवा और देश की आजादी के संघर्ष में बिताया। उनके इस योगदान ने शिरोमणि जी के भीतर समाज सेवा की भावना को जन्म दिया।
शिक्षा और संघर्ष की कहानी
शिरोमणि जी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल से ही प्राप्त की, और आठवीं बोर्ड में जिले में प्रथम स्थान हासिल किया। इसके बाद उनकी प्रतिभा को राज्य सरकार ने पहचानते हुए उन्हें दो साल की स्कॉलरशिप दी। उनकी उच्च शिक्षा आगरा विश्वविद्यालय से बी.ए. और एम.ए. (राजनीतिशास्त्र) में हुई। उनकी शिक्षा और पारिवारिक पृष्ठभूमि ने उनके व्यक्तित्व में अद्वितीय मजबूती और समर्पण की भावना भरी।
एक मजबूत विवाह और नए सफर की शुरुआत
1965 में, डॉ. शिरोमणि माथुर का विवाह श्री श्रीराम माथुर से हुआ, जो लोक निर्माण विभाग में इंजीनियर थे। शादी के बाद, उन्होंने रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर से हिंदी साहित्य में एम.ए. किया। साथ ही उन्होंने समाज सेवा और लेखन की दिशा में भी कदम बढ़ाया। उनके लेख और कहानियाँ विभिन्न समाचार पत्रों में छपने लगीं। उन्होंने नेमीचंद जैन कॉलेज में भी अपनी सेवाएं दीं। उनके पति की नौकरी के कारण उनका निवास दल्ली राजहरा में हुआ, जो लौह अयस्क खनन का प्रमुख क्षेत्र था।
समाज सेवा की शुरुआत: श्रमिक बच्चों के लिए पहल
दल्ली राजहरा में रहने के दौरान, उन्होंने देखा कि वहाँ के श्रमिक बच्चों की शिक्षा और देखभाल की कोई उचित व्यवस्था नहीं थी। यह दृश्य उन्हें व्यथित करता था और उन्होंने तत्काल इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने प्रयासों से महिलाओं को संगठित किया और बच्चों के लिए बालवाड़ी की शुरुआत की, जहाँ श्रमिक बच्चों को शिक्षा और संस्कार दिए जाने लगे। इसके साथ ही उन्होंने महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए सिलाई और कढ़ाई के केंद्र भी खोले। ये सभी प्रयास उन्होंने बिना किसी सरकारी सहायता के किए, केवल अपने समर्पण और समाज सेवा की भावना के तहत।
राजनीति और समाज सेवा का सफर
1978 में, डॉ. शिरोमणि माथुर चिखलाकसा पंचायत की निर्विरोध सदस्य चुनी गईं और इसके बाद जनपद पंचायत डौंडी में भी निर्विरोध चुनी गईं। उनकी समाज सेवा से प्रभावित होकर 1988 में उन्हें दुर्ग जिले की 20 सूत्रीय समिति में मनोनीत किया गया। उनका सामाजिक योगदान यहीं नहीं रुका। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले गरीबों की समस्याओं को हल करने के लिए बीएसपी और जिला प्रशासन के साथ मिलकर कई बोरवेल और हैंडपंप लगवाए।
राजनीति में बढ़ती पैठ
उनकी समाज सेवा से प्रभावित होकर छत्तीसगढ़ कांग्रेस कमेटी के तत्कालीन अध्यक्ष ने उन्हें संगठन मंत्री बनाया, जहाँ उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 2005 में, उन्हें ब्लॉक कांग्रेस कमेटी दल्ली राजहरा का अध्यक्ष नियुक्त किया गया, जहाँ उन्होंने विकास के लिए कई आंदोलनों का नेतृत्व किया। जल संरक्षण से लेकर शिक्षा की दिशा में उनके द्वारा किए गए प्रयासों को व्यापक सराहना मिली।
साहित्यिक सफर: एक महान लेखक की उत्पत्ति
साहित्य के प्रति डॉ. शिरोमणि जी का प्रेम किसी से छुपा नहीं है। 1994 में ब्रह्माकुमारी संस्था के संपर्क में आने के बाद उनका ध्यान अध्यात्म की ओर भी गया। इसी के तहत उन्होंने अपने घर के बड़े कमरे को साधना कक्ष में बदल दिया और यहाँ से उनकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत हुई।
उनकी पहली कृति "अर्पण" उनके बड़े पुत्र आलोक माथुर की आकस्मिक मृत्यु के बाद लिखी गई थी। इस घटना ने उन्हें गहरे दुख में डाल दिया, लेकिन इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक रचनाएँ प्रस्तुत कीं। उनकी प्रमुख कृतियों में "मेरा दल्ली राजहरा", "राहें", "चलें गगन के पार", और "लाए स्वर्ग धरा पर" शामिल हैं।
सम्मान और उपलब्धियाँ
डॉ. शिरोमणि माथुर को उनकी समाज सेवा और साहित्यिक योगदान के लिए देश-विदेश में अनेकों पुरस्कारों से नवाजा गया है। World Wide Book of Records और Golden Book of World Records में उनका नाम दर्ज है। उन्हें आनरेरी डाक्टोरेट की उपाधि भी प्रदान की गई है। छत्तीसगढ़ सरकार ने उन्हें उन्नत कृषक पुरस्कार से सम्मानित किया है, और हाल ही में उन्हें छत्तीसगढ़ रत्न अवार्ड 2023 से भी नवाजा गया है।
साहित्य और अध्यात्म में डूबी हुई शख्सियत
1994 से लेकर अब तक डॉ. शिरोमणि जी का अध्यात्मिक सफर भी निरंतर जारी है। उन्होंने अपने जीवन के संघर्षों और अनुभवों को साहित्य के माध्यम से जीवंत किया है। उनकी रचनाएँ न सिर्फ साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि उनमें अध्यात्म और समाज सेवा की झलक भी स्पष्ट दिखाई देती है।
अंत में...
डॉ. शिरोमणि माथुर का जीवन हमें यह सिखाता है कि प्रेरणा और संकल्प से कोई भी शख्स दुनिया में बदलाव ला सकता है। चाहे वह समाज सेवा हो, साहित्य हो या फिर राजनीति, उन्होंने हर क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी है। उनका जीवन दल्ली राजहरा की उस अनमोल धरोहर की तरह है, जिसे पहचानने के लिए सच्चे जौहरियों की आवश्यकता है।
डॉ. शिरोमणि माथुर का जीवन उन सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत है, जो समाज और राष्ट्र की सेवा करना चाहते हैं।
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