कृष्ण अर्जुन संवाद - ब्रजेश कुमार त्रिपाठी, कुशीनगर | काव्य स्पर्धा 2024
भाई भाई का काल बने जो धनुष बाण संधान न चाहिए। हे केशव मुझे छोड़ अकेला ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।.....
कृष्ण अर्जुन संवाद
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भाई भाई का काल बने जो
धनुष बाण संधान न चाहिए।
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।
यदि मेरे प्रश्न का समाधान
हे श्री कृष्ण हो सकता है।
तत्क्षण यह धनुष बाण
शत्रु के लिए उठ सकता है।।
रण के सारे योद्धाओं से
एक प्रश्न मैं करता हूँ।
तब तक बाण धनुष मैदान में
भूमि के ऊपर रखता हूँ।
हस्तिनापुर भी पूर्ण सौपकर
बंधु प्राप्त हो सकता क्या।
मेरे स्वयं भी देकर प्राण
युद्ध समाप्त हो सकता क्या।।
यदि नहीं है यह संभव तो
मुझे पार्थ सम्मान न चाहिए...
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।1।।
फल की मुझको नही है चिंता
तूने कर्म बताया है।
अपनो के ऊपर करूं प्रहार
ये कैसा धर्म बताया है।।
कर्म की बात तुम्ही करते हो
कोई फल निष्काम न चाहिए।
पांच गांव की बात नही अब
मुझे एक भी ग्राम न चाहिए।
मेरा ही प्राण हरण कर लो तुम,
मुझे किसी के प्रान न चाहिए...
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।2।।
यही धर्म तो पाप है क्या
इसका भी तो ज्ञान बता दो
मात पिता गुरु शिष्य धर्म क्या
यह भी तो मुझको समझा दो।।
यदि कहीं तुम अर्जुन होते
तो क्या यह धर्म निभाते तुम
रणभेरी की धुन सुनकर
किसे किसे अपनाते तुम।।
रातो रातों की नींद तोड़कर
जिसने मुझे संभाला है।
जिससे धनुष चलाना सीखा
पड़ा उसी से पाला है।
मेरे सखा मेरे माधव बन जा
मुझको कृपानिधान न चाहिए...
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।3।।
मां के कैसे सिंदूर मिटाऊं
जिसके दुग्ध का पान किया है।
बिदुर हों या हों संजय दृष्टा
पितातुल्य सम्मान किया है।
कोई खड़ा तात है मेरा
कोई गुरु कोई परम हितैषी।
किस पाप की सजा भुगतनी
मेरे साथ विडंबना कैसी।।
नहीं भुजाएं बलशाली हैं,
वक्षस्थल भी नही कठोर।
जैसे मुझे निगल ना जाये
दिख रहा काल है चारों ओर।।
जिससे आये रक्त गंध का रिश्ता लहूलुहान न चाहिए.....
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।4।।
प्रकाश गगन से चकचौन्ध सी।
जैसे धरा ये डोल रही है।
अपनों पर शस्त्र उठाऊं कैसे
पीड़ा तन में विष घोल रही है।
हो रहे हैं सारे शिथिल अंग
मन दृश्य देख थर्राता है।
किनके किनके देखूँ अवगुण
सबसे बंधुत्व का नाता है।।
धरती आग उगलना चाहे
पवन कुपित मैदान अड़ा है।
प्रलय कुटिल मुस्कान बिखेरे
क्यों तूँ लिए अभिमान खड़ा है।।
अब तो मुझको राह दिखा दो
मुझे कुटिल मुस्कान न चाहिए...
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।5।।
थका नहीं था कभी युद्ध से
अब तो मेरे पाँव कांप रहे।
कितनी कठिन परीक्षा मेरी
क्यों अब मेरा धैर्य भांप रहे।।
बीत रहा अब प्रहर धैर्य का,
उठने वाले हैं अस्त्र तमाम।
मेरा मन अब कांप रहा है
रणभेरी तो रोको श्याम।।
क्या राम नहीं आदर्श हो सकते
क्या भरत का धर्म नही था उत्तम।
मेरे भी तुम नेत्र खोलकर बना दो
मर्यादा पुरुषोत्तम।
करो कलंकित मेरा नाम पर
विभीषण नादान न चाहिए...
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।6।।
तूं ब्रह्म सार या तीर्थ वेद।
तू ज्ञान तपस्या या वैराग्य।
तूँ चाहे हो स्वयं ब्रह्म पर
मेरे लिए तूँ है असाध्य।।
कौन मित्र और शत्रु कौन है
यह कैसे पहचान करूं मैं।
पहले यह मुझको समझा दो
फिर धनुष बाण संधान करूं मैं।।
गुरु की छाती चिर के माधव
मुझे लहू का पान न चाहिए...
हे केशव मुझे छोड़ अकेला
ऐसा मुझको ज्ञान न चाहिए।।7।।
ब्रजेश कुमार त्रिपाठी
कुशीनगर
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