नई दिल्ली, 25 नवंबर 2024: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को संविधान की प्रस्तावना में 'धर्मनिरपेक्ष' और 'समाजवादी' शब्द जोड़ने वाले 42वें संशोधन (1976) को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया। इस फैसले ने वर्षों से जारी बहस पर विराम लगाते हुए स्पष्ट कर दिया कि संसद के पास संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करने का अधिकार है।
42वें संशोधन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
1976 में, आपातकाल के दौरान, 42वें संविधान संशोधन के तहत 'धर्मनिरपेक्ष' (Secular) और 'समाजवादी' (Socialist) शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ा गया था। इस संशोधन का उद्देश्य भारतीय संविधान के उद्देश्यों को और स्पष्ट करना था। हालांकि, तब से ही यह संशोधन विवादों में रहा है।
संविधान की प्रस्तावना को भारत के संवैधानिक आदर्शों का प्रतीक माना जाता है। कई नेता और समाज के वर्ग यह तर्क देते आए हैं कि मूल प्रस्तावना को बदलना संविधान की आत्मा के खिलाफ है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला: संसद का अधिकार अटल
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा,
“पार्लियामेंट को संविधान की प्रस्तावना में संशोधन का अधिकार है। संविधान की प्रस्तावना भी संविधान का ही हिस्सा है, जिसे अलग नहीं माना जा सकता।”
मुख्य न्यायाधीश की पीठ ने यह भी कहा कि इतने वर्षों बाद इस मुद्दे को उठाना अनुचित है। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि संविधान को अपनाने की तिथि या उसकी मूल भावना संसद के संशोधन अधिकार को सीमित नहीं करती।
पुरानी बहसों पर पूर्ण विराम
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने वर्षों से चल रही एक बहस को खत्म कर दिया है।
- क्या प्रस्तावना अपरिवर्तनीय है?
कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना भी संविधान का हिस्सा है, और इसे संशोधित किया जा सकता है।
- 42वें संशोधन की वैधता पर सवाल:
कोर्ट ने कहा कि इस संशोधन को न्यायिक समीक्षा के दौरान पहले भी सही ठहराया गया है।
42वें संशोधन की आलोचना और पक्ष
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आलोचना:
कई आलोचकों का मानना है कि 42वां संशोधन आपातकाल की स्थिति में लाया गया था, जब देश में लोकतांत्रिक स्वतंत्रता सीमित थी। इस वजह से इसे राजनीतिक प्रभाव के तहत लाया गया निर्णय कहा गया।
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पक्ष:
समर्थकों का कहना है कि 'धर्मनिरपेक्षता' और 'समाजवाद' जैसे शब्द भारतीय संविधान की मूल भावना को और मजबूत करते हैं।
संविधान और संसद: संशोधन की शक्ति
अनुच्छेद 368 के तहत, संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह शक्ति प्रस्तावना पर भी लागू होती है।
फैसले का व्यापक प्रभाव
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद अब संविधान की प्रस्तावना में संशोधन के संबंध में कोई कानूनी बाधा नहीं रही। यह फैसला न केवल 42वें संशोधन को सही ठहराता है बल्कि संसद की शक्ति और संविधान के लचीलेपन को भी रेखांकित करता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय लोकतंत्र की एक महत्वपूर्ण मिसाल है। यह दिखाता है कि संविधान एक जीवित दस्तावेज है, जिसे समय और परिस्थितियों के अनुसार बदला जा सकता है। साथ ही, यह संदेश भी देता है कि संविधान की प्रस्तावना को स्थिर मानने की बजाय इसे विकसित दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।
इस निर्णय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कानून और संविधान को लेकर किसी भी प्रकार की बहस का अंत न्यायपालिका के स्पष्ट निर्देशों के साथ होना चाहिए।