Param Vir: 1971 के नायक, घावों की परवाह किए बिना अंतिम सांस तक लड़े अल्बर्ट एक्का
रांची के अल्बर्ट एक्का चौक का रहस्य! 1971 के युद्ध में दुश्मनों को धूल चटाने वाला यह वीर कौन था? मशीनगन पोस्ट पर अकेले धावा, जानलेवा हमले के बाद भी नहीं रुके। सर्वोच्च बलिदान देने वाले इस जांबाज की पूरी कहानी, जो आज भी प्रेरणास्रोत हैं।
रांची, 3 दिसंबर 2025 – भारतीय सेना के इतिहास में कुछ नाम सोने के अक्षरों में अंकित हैं, जिनकी वीरता केवल रणभूमि तक सीमित नहीं रही, बल्कि पूरे राष्ट्र की याद में हमेशा जीवित है। कॉर्पोरल अल्बर्ट एक्का उन्हीं महान योद्धाओं में से एक थे। साहस, ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता की मूरत, उन्होंने 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अपना सबसे बड़ा बलिदान देकर विजय का रास्ता खोल दिया।
गुमला से सेना तक का अमर सफर
अल्बर्ट एक्का का जन्म 27 दिसंबर 1942 को झारखंड के गुमला जिले के एक छोटे से गांव जरी में हुआ था। आदिवासी संस्कृति से जुड़े इस परिवार में श्रम और साहस बचपन से ही मूल सिद्धांत थे।
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शारीरिक क्षमता: खेल-कूद और शारीरिक गतिविधियों में उनकी विशेष रुचि थी, जिसने उन्हें गांव के अन्य बच्चों से अलग पहचान दिलाई। इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने 1962 में 14 गार्ड्स बटालियन में शामिल होकर देश-सेवा के अपने सपने को पूरा किया। वे शीघ्र ही एक कुशल, तेज और सटीक निशानेबाज़ी के लिए जाने जाने लगे।
1971 का युद्ध: वीरता का चरम समय
1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध अल्बर्ट एक्का के अदम्य साहस का सबसे उत्कृष्ट क्षण था। भारतीय सेना को ढाका की ओर बढ़ने के लिए त्रिपुरा-पूर्वी पाकिस्तान सीमा पर स्थित एक अत्यंत महत्वपूर्ण चौकी पर अधिकार करना आवश्यक था। दुश्मन की ओर से वह क्षेत्र मशीनगन और गहरे बंकरों से पूरी तरह सुरक्षित था।
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अकेले कर दिया पहला हमला: 3 दिसंबर 1971 की रात, जब आक्रमण शुरू हुआ, अल्बर्ट एक्का सेना की सबसे आगे वाली पंक्ति में थे। दुश्मन की तीव्र गोलीबारी ने भारतीय जवानों को आगे बढ़ने से रोक दिया था। इस अत्यंत खतरनाक समय में, अल्बर्ट एक्का ने अद्वितीय साहस दिखाया। वह दुश्मन की आँखों से बचते हुए मशीनगन चौकी के बिल्कुल करीब पहुंचे और उस पर जोरदार धावा बोल दिया। इस निकट की झड़प में उन्होंने उस चौकी को पूरी तरह नष्ट कर दिया, जिससे आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
घावों की परवाह किए बिना अंतिम सांस तक लड़े
पहले हमले के दौरान ही अल्बर्ट एक्का गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। परंतु एक सच्चे सैनिक की तरह, उन्होंने पीछे हटने या रुकने से साफ मना कर दिया। दर्द और खून के बहने को अनदेखा करते हुए वह दुश्मन के दूसरे बंकर की ओर बढ़े और उसे भी पूरी तरह से निष्क्रिय कर दिया।
उनकी इस असाधारण बहादुरी के कारण ही यह महत्वपूर्ण चौकी भारतीय सेना के अधिकार में आ सकी, जिससे आगे की रणनीतिक प्रगति संभव हुई। अपनी अंतिम सांस तक रणभूमि में डटे रहना ही अल्बर्ट एक्का की महान वीरता की सबसे बड़ी पहचान है। राष्ट्र-सेवा के मार्ग पर निष्ठा, साहस और बलिदान ही सच्चा परिचय हैं।
उनके इस अदम्य साहस और राष्ट्र के प्रति समर्पण के लिए उन्हें मरणोपरांत देश के सर्वोच्च वीरता सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। रांची का प्रसिद्ध अल्बर्ट एक्का चौक आज भी उनकी वीरता की कहानी कहता है।
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