Aurobindo Legacy: क्रांतिकारी योगी का अंतिम संदेश, 15 अगस्त से जुड़ा दिव्य संयोग
अरबिंदो घोष की पुण्यतिथि पर विशेष! 15 अगस्त को जन्मे, 1910 में राजनीति छोड़कर पांडिचेरी क्यों गए? जानें योगी के रूप में उनका 3 सबसे बड़ा योगदान और कैसे 5 दिसंबर 1950 को उन्होंने भारत के भविष्य पर की थी एक चौंकाने वाली भविष्यवाणी।
पांडिचेरी, 5 दिसंबर 2025 – आज महान स्वतंत्रता सेनानी, दार्शनिक और योगी श्री अरबिंदो घोष की पुण्यतिथि है। 5 दिसंबर, 1950 को पांडिचेरी में उनका निधन हुआ था। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के भीषण संघर्ष से लेकर गहन आध्यात्मिक जागरण तक की एक अद्भुत यात्रा है, जो आज भी प्रेरणा देती है।
विदेशी शिक्षा और स्वदेश लौटने की आग
श्री अरबिंदो घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को कलकत्ता में हुआ था। उनका जन्म दिन भारत के स्वतंत्रता दिवस के साथ मेल खाता है, जो उनके जीवन के राष्ट्रीय और आध्यात्मिक दोनों पहलुओं का प्रतीक है। मात्र सात वर्ष की आयु में उन्हें इंग्लैंड भेज दिया गया, जहां उन्होंने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और लैटिन, ग्रीक, जर्मन सहित कई भाषाओं के विद्वान बने। 1893 में भारत लौटने पर, उन्होंने बड़ौदा राज्य में सेवा की।
बंग भंग का विरोध और क्रांतिकारी दल का गठन
1905 में हुए लॉर्ड कर्ज़न के बंगाल विभाजन ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। उन्होंने बड़ौदा की अपनी नौकरी छोड़कर सक्रिय राजनीति में प्रवेश किया। वह कोलकाता के 'नेशनल कॉलेज' के प्राचार्य बने और क्रांतिकारी आंदोलन के प्रमुख नेता बनकर उभरे।
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पूर्ण स्वराज्य का आह्वान: अरबिंदो घोष ने 'वंदे मातरम्' और 'कर्मयोगिन' जैसे समाचार पत्रों का संपादन किया, जिनमें उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आक्रामक लेख लिखे। उन्होंने सबसे पहले 'पूर्ण स्वराज्य' की मांग की, जब अधिकांश नेता केवल स्वशासन की बात कर रहे थे। 1907 में उन्होंने भारत को 'भारत माता' के रूप में वर्णित और प्रतिष्ठित किया।
जेल में योग और 1910 में संन्यास
ब्रिटिश सरकार उनके क्रियाकलापों से चिंतित होकर उन्हें 1908 में 'अलीपुर बम कांड' के अंतर्गत बन्दी बना लिया। खुदीराम बोस और कनाईलाल दत्त जैसे क्रांतिकारी उनके संगठन के ही हिस्से थे। जेल के अंदर अरबिंदो को गहन आध्यात्मिक अनुभव हुए और उन्हें योग पर चिंतन करने का समय मिला। लोकमान्य तिलक और रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे नेताओं ने भी उनके कार्य की सराहना की।
1910 में वह ब्रिटिश भारत से निकलकर दक्षिण-पूर्वी भारत में स्थित फ्रांसीसी उपनिवेश पांडिचेरी चले गए। यहां उन्होंने राजनीतिक गतिविधियां पूरी तरह छोड़ दीं और शेष जीवन को आध्यात्मिक साधना और 'पूर्णयोग' के दर्शन को विकसित करने में लगा दिया।
भारत के भविष्य पर चौंकाने वाली भविष्यवाणी
1926 में उन्होंने 'श्री अरबिंदो आश्रम' की स्थापना की, जिसका संचालन उनकी आध्यात्मिक सहयोगी मीरा अल्फासा ('द मदर') ने किया। भारत के स्वतंत्र होते ही श्री अरबिंदो ने एक भविष्यवाणी की थी, जो आज भी प्रासंगिक है:
भारत एक बार फिर एशिया का नेता होकर समस्त भूगोल को एकात्मा की मूलभूत श्रृंखला में आबद्ध करने का महान कार्य सम्पन्न करेगा। भारत की आध्यात्मिकता यूरोप और अमेरिका में प्रवेश कर रही है।
अरबिंदो घोष की मृत्यु आज ही के दिन (5 दिसंबर, 1950) हुई थी। 'द लाइफ डिवाइन' और 'सावित्री' जैसे उनके साहित्यिक योगदान ने उन्हें विश्व साहित्य में एक अद्वितीय स्थान दिलाया। उनका आश्रम और ऑरोविल अंतर्राष्ट्रीय नगर आज भी उनके आदर्शों के प्रतीक हैं।
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