World AIDS Day: झारखंड में शहरों ने मारी बाजी, लेकिन गांवों में हालात डरावने! रांची-जमशेदपुर का आंकड़ा जानकर हैरान रह जाएंगे

वर्ल्ड एड्स डे 2023 पर खास रिपोर्ट: झारखंड में एचआईवी का क्या है हाल? रांची, जमशेदपुर की तुलना पटना और बिहार से। नए मामले, सरकारी योजनाएं और हैरान करने वाली जमीनी हकीकत। पूरी खबर यहां पढ़ें।

Dec 1, 2025 - 11:38
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World AIDS Day: झारखंड में शहरों ने मारी बाजी, लेकिन गांवों में हालात डरावने! रांची-जमशेदपुर का आंकड़ा जानकर हैरान रह जाएंगे
World AIDS Day: झारखंड में शहरों ने मारी बाजी, लेकिन गांवों में हालात डरावने! रांची-जमशेदपुर का आंकड़ा जानकर हैरान रह जाएंगे

रांची/जमशेदपुर: दुनिया भर में आज एक दिसंबर को वर्ल्ड एड्स डे मनाया जा रहा है, लेकिन झारखंड अपनी एचआईवी/एड्स के खिलाफ लड़ाई में एक विरोधाभासी तस्वीर पेश कर रहा है। जहां रांची और जमशेदपुर जैसे शहरी केंद्र बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं की वजह से मामलों में कमी दर्ज कर रहे हैं, वहीं राज्य के दूरदराज के जिले परीक्षण, इलाज और जागरूकता की गंभीर कमी से जूझ रहे हैं।

हमारे न्यूज पोर्टल की जमीनी रिपोर्ट, जो नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन (नाको) के ताजा आंकड़ों, जिला स्वास्थ्य रिपोर्टों और मरीजों, डॉक्टरों व आशा कार्यकर्ताओं के साक्षात्कार पर आधारित है, ने इस खनिज-संपन्न राज्य में शहरी-ग्रामीण विभाजन की स्पष्ट तस्वीर सामने रखी है।

राज्यव्यापी तस्वीर: झारखंड बनाम बिहार

अक्सर एक साथ देखे जाने वाले झारखंड और उसके पड़ोसी राज्य बिहार में एचआईवी की स्थिति अलग-अलग है।

पैरामीटर झारखंड (2022-23) बिहार (2022-23) राष्ट्रीय औसत
वयस्क प्रसार दर ~0.18% (अनुमानित) ~0.22% (अनुमानित) 0.21%
उच्च प्राथमिकता वाले जिले 4 (रांची, पूर्वी सिंहभूम, गुमला, सिमडेगा) 8 (पटना, मुजफ्फरपुर, गया आदि) -
पीपीटीसीटी कवरेज 68% (लगभग) 72% (लगभग) 80%+
एआरटी केंद्र 12 15 -

स्रोत: नाको व राज्य एड्स नियंत्रण समिति के आंकड़ों से संकलित

रांची में एचआईवी देखभाल की नोडल अधिकारी डॉ. प्रिया मिश्रा* बताती हैं, "झारखंड की चुनौती भौगोलिक और सामाजिक है। खनन जिलों में प्रवासी आबादी रहती है, जबकि वनांचल इलाकों में पहुंच कमजोर है। हमने शहरी संक्रमण पर काबू पा लिया है, लेकिन गांवों में वह वायरस चुपचाप फैल रहा है, जहां कलंक की वजह से लोग परीक्षण ही नहीं कराते।"

शहर-दर-शहर हालात: अच्छी खबर और डरावनी सच्चाई

1. जमशेदपुर (पूर्वी सिंहभूम): औद्योगिक शहर का फायदा
एक औद्योगिक नगर के तौर पर, जमशेदपुर में राज्य की सबसे मजबूत एचआईवी प्रतिक्रिया है।

  • स्थिति: आम आबादी में नए मामले घट रहे हैं, लेकिन मुख्य आबादी (ट्रक ड्राइवर, प्रवासी मजदूर) के बीच चिंता बनी हुई है।

  • बुनियादी ढांचा: 3 एआरटी केंद्र, 5 एकीकृत परामर्श और परीक्षण केंद्र (आईसीटीसी), टाटा जैसी कंपनियों के सीएसआर समर्थन से मजबूत पहल।

  • जमीनी हकीकत: एक सामुदायिक कार्यकर्ता बताते हैं, "कारखानों और परिवहन केंद्रों पर नियमित स्वास्थ्य शिविरों ने मदद की है। लेकिन ठेका मजदूर, जो हर कुछ महीनों में स्थान बदलते हैं, अक्सर सिस्टम से बाहर हो जाते हैं।"

2. रांची: राजधानी का मिला-जुला रिकॉर्ड
राज्य की राजधानी शहर के भीतर ही स्वास्थ्य सेवाओं की असमानता दिखाती है।

  • स्थिति: बेहतर परीक्षण की वजह से पहचान दर अधिक, लेकिन यह संक्रमित आबादी के महत्वपूर्ण होने का भी संकेत है। पीपीटीसीटी सेवाओं का बेहतर उपयोग।

  • बुनियादी ढांचा: 4 एआरटी केंद्र, जिनमें राज्य का सबसे बड़ा आरआईएमएस (राजेंद्र इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज) शामिल।

3. पटना (बिहार तुलना): बेहतर जुड़ाव वाला पड़ोसी
भले ही पटना झारखंड में नहीं है, लेकिन उसकी स्थिति बेहतर कनेक्टिविटी और जागरूकता के क्या फायदे हो सकते हैं, यह दिखाती है।

  • स्थिति: निरपेक्ष संख्या अधिक लेकिन झारखंड के औसत की तुलना में इलाज का पालन बेहतर और मां से बच्चे में संक्रमण की दर कम।

  • कारण? एनजीओ का सघन नेटवर्क, संस्थागत प्रसव अधिक, और दवा आपूर्ति के लिए ग्रामीण इलाकों तक बेहतर सड़क कनेक्टिविटी।

ग्रामीण संकट: जहां सिस्टम फेल हो रहा है

शहरों से दूर, खासकर लातेहार, गोड्डा और पश्चिमी सिंहभूम जैसे जिलों में स्थिति गंभीर है:

  • 'परीक्षण रेगिस्तान': कई ब्लॉक स्तरीय स्वास्थ्य केंद्रों में आईसीटीसी मशीन अनियमित रूप से काम करती है। गोड्डा के एक लैब तकनीशियन ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "मशीन छह महीने से खराब पड़ी है।"

  • कलंक का साम्राज्य: गुमला की एक आशा कार्यकर्ता मंजू देवी कहती हैं, "लोग परीक्षण कराने की बजाय मरना बेहतर समझते हैं। अगर किसी को आईसीटीसी में देख लिया गया, तो पूरा गांव उसे संदेह की निगाह से देखता है।"

  • दवाइयों की कमी: मरीज अक्सर 100+ किमी का सफर कर रांची पहुंचते हैं, लेकिन स्थानीय केंद्र पर एआरटी दवाएं खत्म मिलती हैं। इससे खुराक छूट जाती है और दवा प्रतिरोध का खतरा बढ़ जाता है।

सरकारी दावे बनाम जमीनी हकीकत

झारखंड राज्य एड्स नियंत्रण समिति (जेसैक्स) का दावा है कि उन्होंने काफी प्रगति की है:

  • अनुमानित एचआईवी पीड़ितों में से 85%+ को अपनी स्थिति का पता है।

  • 50,000 से अधिक लोग मुफ्त एआरटी उपचार पर हैं।

  • 300+ परीक्षण केंद्र सक्रिय हैं।

हालांकि, जमीनी कहानियां इन आंकड़ों का खंडन करती हैं। रांची स्थित एनजीओ 'संकल्प' के कार्यकर्ता अरविंद कुमार पूछते हैं, "सरकारी आंकड़े सिर्फ उन्हें दिखाते हैं जो सुविधाओं में आते हैं। उन हजारों लोगों का क्या जो कभी आते ही नहीं?"

सफलता की कहानियां: उम्मीद की किरण

चुनौतियों के बीच, कुछ पहल उम्मीद जगाती हैं:

  • जमशेदपुर के 50+ कॉलेजों में 'रेड रिबन क्लब' ने युवा जागरूकता को एक आंदोलन बना दिया है।

  • रांची के रेलवे स्टेशनों पर 'टेस्ट एंड ट्रीट' अभियान ने सैकड़ों मामले शुरुआत में ही पकड़े हैं।

  • पलामू ने स्थानीय जंगल बहिन (पारंपरिक हीलर) के साथ सहयोग कर कलंक कम करने में सफलता पाई है।

आगे का रास्ता: विशेषज्ञ क्या सुझाव देते हैं

  1. मोबाइल आईसीटीसी वैन: दूरदराज, खनन और वनांचल इलाकों के लिए।

  2. विकेंद्रीकृत दवा वितरण: पंचायत भवनों या ग्राम स्वास्थ्य दिवसों के जरिए, ताकि इलाज में व्यवधान न आए।

  3. कलंक के खिलाफ अभियान: स्थानीय नेताओं, पंचायती राज संस्थाओं और एचआईवी के साथ स्वस्थ जीवन जी रहे लोगों की सफलता की कहानियां शामिल कर।

  4. प्रवासी ट्रैकिंग: ओडिशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के साथ अंतर-राज्यीय सहयोग, ताकि निरंतर देखभाल सुनिश्चित हो सके।

इस वर्ल्ड एड्स डे पर, झारखंड एक अहम मोड़ पर खड़ा है। इसके शहरी केंद्रों में मिली सफलता साबित करती है कि यह लड़ाई जीती जा सकती है। लेकिन अपने ग्रामीण इलाकों पर युद्धस्तर पर ध्यान दिए बिना—जहां तथ्यों से ज्यादा डर हावी है—राज्य एक ऐसी बीमारी से पीढ़ी खोने का जोखिम उठा रहा है, जिसका इलाज संभव है।

खूंटी से आने वाली और एआरटी ले रही 28 वर्षीय सुनीता (नाम बदला हुआ) के शब्दों में कहें तो: "दवा मुफ्त है, लेकिन हर महीने इसे लेने का साहस हमें हर चीज से ज्यादा महंगा पड़ता है।" जब तक यह नहीं बदलता, झारखंड की लड़ाई अधूरी ही रहेगी।

*नाम गोपनीयता बनाए रखने के लिए बदले गए हैं।

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Team India मैंने कई कविताएँ और लघु कथाएँ लिखी हैं। मैं पेशे से कंप्यूटर साइंस इंजीनियर हूं और अब संपादक की भूमिका सफलतापूर्वक निभा रहा हूं।