Lalu-Nitish Saga in Bihar: दोस्ती से दुश्मनी तक, कैसे बनी बिहार की सियासत?

लालू यादव और नीतीश कुमार की दोस्ती से दुश्मनी तक की कहानी क्या है? जानिए कैसे जेपी आंदोलन से शुरू हुआ उनका सफर सत्ता की जंग में बदल गया, और कैसे लालू बने यादव-मुस्लिम के नेता और नीतीश बने सुशासन की नई धारा के अगुआ।

Aug 19, 2025 - 09:00
Aug 19, 2025 - 00:50
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Lalu-Nitish Saga in Bihar: दोस्ती से दुश्मनी तक, कैसे बनी बिहार की सियासत?
Lalu-Nitish Saga in Bihar: दोस्ती से दुश्मनी तक, कैसे बनी बिहार की सियासत?

बिहार की सियासत: लालू और नीतीश की दोस्ती से दुश्मनी तक का सफर

बिहार की राजनीति की कहानी किसी नाटक से कम नहीं है, और इस नाटक के दो मुख्य पात्र हैं—लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार। कभी एक ही मंच पर कंधे से कंधा मिलाकर जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में हिस्सा लेने वाले ये दोनों नेता आज बिहार की सियासत में एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं। उनकी कहानी दोस्ती, विश्वास, सत्ता की भूख और वैचारिक मतभेदों की ऐसी दास्तान है, जो बिहार की राजनीति को समझने के लिए एक जीवंत दस्तावेज है। आइए, इस कहानी को विस्तार से जानते हैं, जिसमें लालू यादव यादव और मुस्लिम समुदाय के बड़े नेता बने, तो नीतीश कुमार ने विकास और सुशासन की नई धारा को अपनाकर अपनी अलग पहचान बनाई।जेपी आंदोलन: दोस्ती की नींव1970 का दशक बिहार की सियासत के लिए एक उथल-पुथल भरा दौर था।

देश आपातकाल की ओर बढ़ रहा था, और बिहार में जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ आंदोलन जोर पकड़ रहा था। पटना विश्वविद्यालय के गलियारों में दो युवा नेता उभर रहे थे—लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार। लालू की हाजिरजवाबी और देसी अंदाज उन्हें जनता के बीच लोकप्रिय बना रहा था, जबकि नीतीश की रणनीतिक सोच और शांत स्वभाव उन्हें एक गंभीर नेता के रूप में स्थापित कर रहा था।
जेपी आंदोलन में दोनों ने साथ मिलकर सड़कों पर उतरकर लाठियां खाईं और जेल की सलाखों के पीछे समय बिताया। 1974 में लालू पटना विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष बने, और नीतीश भी इस आंदोलन में उनकी बराबरी के सिपाही थे। 1977 में आपातकाल हटने के बाद जनता पार्टी की जीत ने दोनों को सियासी मंच दिया। लालू ने 29 साल की उम्र में छपरा से लोकसभा चुनाव जीता, और नीतीश भी जनता दल में अपनी जगह बनाने लगे। यह वह दौर था, जब दोनों की दोस्ती बिहार की सियासत में एक नई उम्मीद की तरह देखी जा रही थी।

लालू का उभार और नीतीश की मेहनत

1990 में जनता दल की जीत के बाद बिहार की सियासत में एक नया मोड़ आया। लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, लेकिन इस जीत के पीछे नीतीश कुमार की मेहनत और रणनीति का बड़ा योगदान था। उस समय लालू के पास विधायकों का पर्याप्त समर्थन नहीं था, लेकिन नीतीश और शरद यादव ने दिन-रात एक करके विधायकों को लालू के पक्ष में जोड़ा। नीतीश खुद लालू को लेकर विधायकों के घर-घर गए, उन्हें मनाया और आखिरकार लालू को नेता प्रतिपक्ष और फिर मुख्यमंत्री बनवाया।

लालू ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग के दम पर यादव और मुस्लिम समुदाय को एकजुट किया। उनका ‘MY’ (मुस्लिम-यादव) समीकरण बिहार की सियासत में एक ताकतवर हथियार बन गया। 1990 के दशक में मंडल आयोग के लागू होने के बाद लालू ने पिछड़े वर्गों और अल्पसंख्यकों को अपनी ताकत बनाया। उनकी नीतियों ने दलितों और पिछड़ों को सम्मान और स्वतंत्रता का एहसास दिलाया। लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को रोककर उन्होंने मुस्लिम समुदाय में अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को और मजबूत किया।

दोस्ती में दरार: सत्ता की गर्मीलेकिन सत्ता की गर्मी ने लालू और नीतीश की दोस्ती में दरार डाल दी। लालू की जातीय राजनीति और नीतीश की विकास-केंद्रित सोच में टकराव शुरू हुआ। 1991 के लोकसभा चुनावों में लालू ने मंडल राजनीति के सहारे बड़ी जीत हासिल की, लेकिन नीतीश को लगने लगा कि लालू उनकी सलाह को नजरअंदाज कर रहे हैं। नीतीश, जो शांत और रणनीतिक नेता थे, लालू की कार्यशैली और उनके बढ़ते परिवारवाद से असहज होने लगे।

1994 में नीतीश ने बगावत का बिगुल फूंका। गांधी मैदान में आयोजित एक कुर्मी रैली ने उन्हें नई ताकत दी, और उन्होंने समता पार्टी का गठन कर लिया। यह लालू के खिलाफ खुला विद्रोह था। नीतीश ने गैर-यादव ओबीसी, खासकर कुर्मी और कोईरी समुदायों को अपने साथ जोड़ा और विकास की राजनीति को अपनी पहचान बनाया। यहीं से दोनों की राहें पूरी तरह अलग हो गईं।

चारा घोटाला और नीतीश का उदय

1996 में चारा घोटाले ने लालू की सियासी जमीन हिला दी। घोटाले के आरोपों के बाद लालू ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया, जिसे नीतीश ने परिवारवाद का प्रतीक बताया। नीतीश ने ‘जंगलराज’ के खिलाफ सुशासन का नारा बुलंद किया और 1999 में बीजेपी के साथ गठबंधन कर लिया। 2005 में नीतीश ने लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को उखाड़ फेंका। सड़कों, बिजली और कानून-व्यवस्था में सुधारों ने नीतीश को ‘सुशासन बाबू’ की उपाधि दिलाई। दूसरी ओर, चारा घोटाले की सजा ने लालू की सियासी ताकत को कमजोर किया।

नीतीश ने लव-कुश (कोईरी-कुशवाहा) समीकरण बनाया और पसमांदा मुस्लिमों को अपनी ओर खींचा। भागलपुर दंगों की जांच, कब्रिस्तान की बाउंड्री जैसे कदमों ने मुस्लिम समुदाय में उनकी पैठ बढ़ाई। नीतीश की रणनीति ने लालू के ‘MY’ समीकरण को चुनौती दी, और बीजेपी के सवर्ण और वैश्य वोटों के साथ मिलकर उन्होंने बिहार में नई सियासी ताकत बनाई।

महागठबंधन: दोस्ती की वापसी और टूटन

2013 में नीतीश ने बीजेपी से नाता तोड़ा, लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में हार ने उन्हें कमजोर किया। 2015 में बीजेपी को हराने के लिए लालू और नीतीश ने हाथ मिलाया और महागठबंधन बनाया। यह दोस्ती की वापसी थी, लेकिन पुराना भरोसा गायब था। नीतीश फिर मुख्यमंत्री बने, लेकिन लालू के बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप के साथ तालमेल नहीं बिठा पाए। 2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों का हवाला देकर नीतीश ने महागठबंधन तोड़ दिया और बीजेपी के साथ लौट आए। लालू ने इसे ‘विश्वासघात’ करार दिया, और तेजस्वी ने नीतीश को ‘पलटू राम’ का तमगा दे दिया।

2022 में नीतीश ने फिर पलटी मारी और RJD के साथ सरकार बनाई, जिसमें तेजस्वी डिप्टी सीएम बने। लेकिन 2024 में नीतीश एक बार फिर एनडीए में लौट आए। लालू और तेजस्वी ने इसे उनकी अविश्वसनीयता का सबूत बताया।

लालू: यादव-मुस्लिम का मसीहा

लालू ने अपनी राजनीति को यादव और मुस्लिम समुदाय के इर्द-गिर्द बुना। उनकी सोशल इंजीनियरिंग ने बिहार में 32% वोट (17.7% मुस्लिम और 14% यादव) को एकजुट किया। मंडल आयोग का समर्थन, चरवाहा स्कूलों की स्थापना, और दलित-पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में जगह देकर उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उनके देसी अंदाज, हास्य और जनता से सीधा संवाद उन्हें ‘गरीबों का मसीहा’ बनाता था। लेकिन चारा घोटाला, जंगलराज और परिवारवाद के आरोपों ने उनकी छवि को धक्का पहुंचाया।


नीतीश: सुशासन और नई धारा का नेता

नीतीश ने विकास और सुशासन को अपनी पहचान बनाया। सड़क, बिजली, स्कूल और शराबबंदी जैसे कदमों ने उन्हें ‘विकास पुरुष’ की छवि दी। गैर-यादव ओबीसी, महिलाओं और पसमांदा मुस्लिमों को अपने पक्ष में लाकर उन्होंने लालू के समीकरण को तोड़ा। उनकी रणनीति थी—जाति की राजनीति को विकास की धारा में बदलना। लेकिन बार-बार गठबंधन बदलने ने उनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठाए।

बिहार की सियासत का सबक लालू और नीतीश की कहानी सिखाती है कि सियासत में न कोई स्थायी दोस्त होता है, न दुश्मन। जेपी आंदोलन की गर्मी में शुरू हुई उनकी दोस्ती सत्ता की चालों में दुश्मनी में बदल गई। 2025 के विधानसभा चुनाव में नीतीश एनडीए के चेहरे हैं, जबकि तेजस्वी RJD की कमान संभाल रहे हैं। तेज प्रताप की नई पार्टी इस जंग में नया रंग भर सकती है। बिहार की जनता किसे चुनेगी, यह बड़ा सवाल है। लेकिन एक बात तय है—लालू और नीतीश की यह सियासी जंग बिहार की राजनीति में हमेशा गूंजती रहेगी।

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