मैं ही हूँ - प्रतिभा प्रसाद 'कुमकुम'
मैं ही हूँ
सुरभि अपने को खासा बुद्धिमान मानती थी । आखिर माने भी क्यूँ न ? घर में उसकी तुती बोलती थी । पिता की विशेष लाड़ली और माँ की बुद्धिमान बिटिया रानी । घर में कुछ भी हो उसकी सलाह जरूरी होती थी । अंतिम निर्णय भी उसी का होता था । पिता के तरफ से यह लाड़ था लेकिन पुत्री के निगाह में यह उसकी बुद्धिमानी का लोहा मानना था । दोनों के चिंतन में फर्क था । पिता को लगता था कि बचपना हटते ही सुरभी सब समझ जाएगी । बड़ों को आदर व अनुजों को स्नेह देना सीख जाएगी । लेकिन यहाँ पिता का चिंतन फेल हो गया । क्यों कि सुरभि की उम्र लगभग पच्चीस से पार कर चुकी थी । वैसे भी लड़कियाँ अठारह वर्ष के होते ही बालिग हो जाती है और बुद्धि परिपक्व । सोमेश्वर दत्त जी यहीं चुक गए ।
सुरभि का लाड़ अब बुद्धिमत्ता के साथ खेलते हुए अभिमान को पार कर अहंकार बन चुका था । जिसका ज्ञान पिता पुत्री दोनों को नहीं था । जिसका परिणाम परिवार को तो भुगतना ही पड़ा खुद सुरभि भी इससे बच नहीं सकी ।
हम अपने धर्म ग्रंथों की मानें तो यह शिक्षा हमें बचपन से घुट्टी में पिलाई जाती है कि लड़की हो या लड़का त्याग से परिवार जुड़ा रहता है । यह परिस्थिति पर निर्भर करता है कि कोई कब कैसे त्याग करेगा । श्री प्रभु राम की बहन के त्याग पर ही श्री राम जी के जन्म की गाथा जुड़ी है तो सीता के त्याग पर ही प्रभु राम के श्री रामचन्द्र बनने की गाथा जुड़ी हुई है । यह विश्व विख्यात है । सबको पता है ।
अब यह बात सुरभि की शिक्षा दीक्षा में गौन रह गई । उसका मैं ही शक्तिशाली हो गया । घर में सभी भाई बहन में सबसे छोटी लेकिन सम्मान सबसे पहले उसे ही चाहिए । किसी को भी नीचा दिखाकर, छोटा दिखाकर, ओछा दिखाकर सिर्फ वही अच्छी और सच्ची होनी चाहिए । उसके सामने सही गलत की अपनी तार्किक परिभाषा । जिसे काटने की कोई जुर्रत न करें । अब यहाँ आ जाता है कहानी में एक नया मोड़ । बड़े भाई की शादी होती है और एक नयी बहू घर में आ जाती है । देखते देखते आए दिन ननद भाभी की तकरार युद्ध का रुप ले लेती है । रामायण का उदाहरण देकर नई भाभी यह सिद्ध कर देती है कि छोटी ननद बड़ी भाभी का जीवन कंट्रोल नहीं कर सकती है । नहीं भाई भाभी और भतीजे भतीजी के लिए कोई निर्णय थोप सकती है । बस सुरभि का मैं आहात होने लगता है । जिसकी इच्छा के विरुद्ध घर में एक पत्ता भी नहीं डोलता था वहाँ भाभी ने उनके सत्ता को ही नकार दिया था । सुरभि के अहंकार का तिलमिला जाना स्वाभाविक था । उसे लगता था कि भाभी गलत है आखिर यह उसका घर है और भाभी को लगता कि माँ बाबु जी जो कुछ कहें तो ठीक है लेकिन छोटी ननद का हुक्म वो क्यों मानें ? चार -पाँच साल तक कुछ नहीं बोली ठीक है । सब समझना बुझना भी जरूरी था लेकिन अब नहीं । बड़ों की आज्ञा का उलंघन नहीं करूंगी लेकिन छोटों का शासन नहीं सहूँगी । बस क्या था? रामायण में महाभारत काल का प्रवेश हो गया । और मैं ही हूँ आहात होकर खंड खंड हो गया । किसी के मृत्यु पर दुख तो होता ही है सो हुआ और भयंकर हुआ युद्ध भी और दुख भी । रिश्ते टूट गए । अहंकार विद्धमान रहा टूट कर भी फिर जुड़ गया और दूने शक्ति के साथ जुड़ा । मैं ही हूँ जीत गया लेकिन अकेले है अपने मैं के कुनबे में ।
What's Your Reaction?