ग़ज़ल 4 - नौशाद अहमद सिद्दीकी, भिलाई
सुलह की रस्म निभाना बहुत ज़रूरी है, दिलों को पहले मिलाना बहुत ज़रूरी है। .......
ग़ज़ल
सुलह की रस्म निभाना बहुत ज़रूरी है,
दिलों को पहले मिलाना बहुत ज़रूरी है।
किताब दर्स की रखने से कुछ नहीं हासिल,
इसे तो पढ़ना पढ़ाना बहुत ज़रूरी है।
वतन की मिट्टी पे पलकर जवान हो तो गए,
अब इसका कर्ज़ चुकाना बहुत ज़रूरी है।
भटक गए हैं जो रस्ते में कुछ अंधेरों के,
उन्हें भी राह दिखाना बहुत ज़रूरी है।
जिसे तमाम लोग गाएं सदा मिल जुलकर,
कोई ऐसा भी तराना बहुत ज़रूरी है।
हवा ज़माने की तुमको कहीं ना बहका दे,
कोई तो घर में सयाना बहुत ज़रूरी है।
जो चाहते हो आसमां की बुलंदी नौशाद,
परों में ताब का लाना बहुत ज़रूरी है।
गज़लकार
नौशाद अहमद सिद्दीकी,
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