ग़ज़ल - 13 - नौशाद अहमद सिद्दीकी, भिलाई
मौंजों के तलातुम का वो तेवर नहीं देखा, सागर के किनारों से जो बढ़कर नहीं देखा। ......
ग़ज़ल
मौंजों के तलातुम का वो तेवर नहीं देखा,
सागर के किनारों से जो बढ़कर नहीं देखा।
वो रूठ के निकला तो बिखरता चला गया,
उस दिन से पलटकर कभी फिर घर नहीं देखा।
चट्टानों को भी टूटते देखा है नज़र से,
हमने तेरे दिल की तरह पत्थर नहीं देखा।
मजबूर पे क्यों हंसता है, क्यों कसता है फिक्रे,
लगता है कि गर्दिश ने तेरा घर नहीं देखा।
खतरों से खेलता रहा बेबाकी से नौशाद,
हमने तो उसके दिल में कभी घर नहीं देखा।
गज़लकार
नौशाद अहमद सिद्दीकी,
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