Bihar Reborn: भिखारी ठाकुर का खौफनाक सच, भोजपुरी के शेक्सपियर की अनसुनी दास्तान
भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर के जीवन के उन काले पन्नों से पर्दा उठ गया है जिन्हें सामंती व्यवस्था ने दबाने की कोशिश की थी। "भिखारी नामा" नाटक के जरिए हाशिये पर पड़े लोगों की चीख और संघर्ष को जिस तरह मंच पर उतारा गया है, उसे जाने बिना आप बिहार की मिट्टी की असली महक और क्रूर इतिहास को कभी नहीं समझ पाएंगे।
पटना, 18 दिसंबर 2025 – कला और संस्कृति की उर्वर भूमि बिहार ने समय-समय पर ऐसे महामानवों को जन्म दिया है जिन्होंने अपनी लेखनी और कला से सत्ता की चूलें हिला दीं। इन्हीं में से एक नाम है भिखारी ठाकुर। जिन्हें दुनिया 'भोजपुरी का शेक्सपियर' कहती है, उनकी विरासत को आज एक बार फिर "भिखारी नामा" के जरिए पुनर्जीवित किया गया है। यह सिर्फ एक नाटक नहीं, बल्कि उस सामंती क्रूरता और जातिवादी दंश का जीवंत दस्तावेज़ है, जिसे भिखारी ठाकुर ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक भोगा और चुनौती दी।
इतिहास के झरोखे से: नाई की दुकान से वैश्विक रंगमंच तक
भिखारी ठाकुर का जन्म एक बेहद साधारण परिवार में हुआ था। उनके समय का बिहार सामाजिक बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, जहाँ शिक्षा पर केवल उच्च जातियों का अधिकार माना जाता था। गरीबी और जातिगत प्रताड़ना के कारण उन्हें बचपन में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। इतिहास गवाह है कि दिन भर की हाड़-तोड़ मेहनत के बाद रातों को जब वे उच्च जातियों के घरों में काम करने जाते, तो उन पर जो जुल्म होते थे, उसी ने उनके भीतर के 'विद्रोही कलाकार' को जन्म दिया। बिदेसिया शैली का उदय इसी पीड़ा से हुआ था, जिसने आगे चलकर आधुनिक भोजपुरी रंगमंच की नींव रखी।
भिखारी नामा: एक वृत्तचित्र-नाटक जो रोंगटे खड़े कर दे
हाल ही में जैनेंद्र दोस्त के निर्देशन में प्रस्तुत "भिखारी नामा" ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर दिया है। जैनेंद्र, जिन्होंने 'लौंडा नाच' परंपरा पर शोध किया है, ने इस नाटक को एक महाकाव्य की तरह पिरोया है। यह प्रस्तुति ठाकुर के जीवन के उन कोनों को छूती है, जहाँ हास्य तो है, पर उस हास्य के नीचे सामंती व्यवस्था का नंगा और वीभत्स चेहरा छिपा है।
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मंच की बनावट: मंच के पीछे बना वह चबूतरा और लोक वादकों की गूँज दर्शकों को सीधे ठाकुर के युग में ले जाती है।
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कलात्मक प्रयोग: मुख्य कलाकार (जैनेंद्र दोस्त) दर्शकों के सामने ही वेशभूषा बदलते हैं, जो यह दर्शाता है कि एक कलाकार समाज की अलग-अलग भूमिकाओं में कैसे ढलता है।
जब 'बिदेसिया' बना विस्थापन का दर्द
भिखारी ठाकुर ने देखा कि कैसे बिहार के मर्द रोजी-रोटी की तलाश में कोलकाता (तब कलकत्ता) चले जाते थे और पीछे छूट जाती थीं तड़पती हुई पत्नियाँ। इसी विरह और पलायन के दर्द को उन्होंने 'बिदेसिया' नाम दिया। कुछ विद्वान उनके नाटक "गबरघीचोर" की तुलना महान जर्मन नाटककार बर्टोल्ट ब्रेख्त की कृतियों से करते हैं। यह अद्भुत है कि एक अनपढ़ कलाकार ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा के वे तत्व खोज लिए थे, जो विश्व रंगमंच के बड़े नामों ने सालों बाद पहचाने।
प्रमुख कलाकार और उनके प्रभाव
| कलाकार | भूमिका | प्रभाव |
| जैनेंद्र दोस्त | निर्देशक/भिखारी ठाकुर | ठाकुर की शैली को आधुनिक संदर्भ में जीवंत किया |
| सरिता साज़ | मुख्य गायिका/दुल्हन | अपनी भावपूर्ण आवाज़ से दर्शकों की आँखें नम कीं |
| सतीश आनंद | शोधकर्ता | भिखारी ठाकुर के रंगमंच को वैश्विक पहचान दिलाई |
अदभुत दुनिया और समाज सुधार का संगम
नाटक हमें उस दौर में ले जाता है जब भिखारी ठाकुर रामलीला से प्रेरित होकर अपनी मंडली बनाते हैं। वह अपनी 'प्यारी दुल्हन' (मिट्टी और जड़ों) के पास लौटते हैं और दहेज, नशाखोरी और जातिवाद जैसी बुराइयों के खिलाफ गीतों की रचना करते हैं। उन्होंने हजारों लोगों की भीड़ के सामने गाकर न केवल उनका मनोरंजन किया, बल्कि उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक भी किया।
जैनेंद्र दोस्त और उनके भिखारी ठाकुर रिपर्टरी एंड रिसर्च सेंटर ने जिस तरह से दिग्गज लोक कलाकारों को जोड़कर इस कला को सहेजा है, वह काबिले तारीफ है। भिखारी ठाकुर की प्रासंगिकता आज भी कम नहीं हुई है, क्योंकि पलायन और सामाजिक असमानता आज भी हमारे समाज का हिस्सा है।
निष्कर्ष: क्यों देखना चाहिए भिखारी नामा?
यह नाटक सिर्फ एक मनोरंजन नहीं है, बल्कि यह आत्ममंथन का एक जरिया है। सरिता साज़ की आवाज़ में जो विरह है और जैनेंद्र दोस्त के अभिनय में जो तीव्रता है, वह भिखारी ठाकुर के संघर्षों को सीधे आपके दिल तक पहुँचाती है। यदि आप बिहार के असली लोक रंगमंच और उसके पीछे छिपे गौरवशाली इतिहास को समझना चाहते हैं, तो यह गाथा आपके लिए ही है।
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